Sunday, 15 July 2018

रागी यानी कई मर्ज की एक दवा

रागी स्वास्थ्य के लिए बहुत ही लाभदायक है। अगर इसे कई मर्ज की एक दवा कहा जाए, तो गलत नहीं होगा। यह कैल्शियम का बहुत अच्छा स्रोत है। इसके उपयोग से वह सभी समस्याएं दूर हो जाती हैं, जिसकी वजह कैल्शियम होता है। यानी हड्डियों के दर्द से लेकर तनाव, अनिद्रा और हृदय रोग तक।
रागी को मडुआ और नाचनी भी बोला जाता है। अंग्र्रेजी में फिंगर मिलेट कहते हैं। यह देखने में बिल्कुल सरसों जैसा लगता है। इसमें मौजूद अमीनो एसिड मिथियोजाइन के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। इसके साथ-साथ इसमें प्रोटीन, कैल्शियम, भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। डाइटीशियन श्रुति कौशल बताती हैं कि इसका प्रयोग कई तरह से किया जा सकता है। रागी का आटा बाजार में आसानी से उपलब्ध है। इस आटा को एयर टाइट डिब्बे में किसी सूखी व ठंडी जगह पर रखें ताकि यह खराब नहीं हो। रागी और चावल को बराबर मात्रा में मिलाकर स्वादिष्ट और पौष्टिक डोसा या इडली, उपमा भी बना सकते हैं। छोटे बच्चों के लिए इससे दलिया भी बनाया जा सकता है। भुनी हुई रागी को पीसी हुई चीनी, इलायची और घी के साथ मिलाकर इसके लड्डू बनाकर खुद व दूसरों को भी चाय इत्यादि के सामने रख सकते हैं।

रागी के फायदे
फाइबर में उच्च रागी : चावल की तुलना में इसमें फाइबर ज्यादा है। इसमें मौजूद एमिनो एसिड लेसिथिन और मिथियोनिन लीवर में से अतिरिक्त फैट से छुटकारा दिलाकर  शरीर में कोलेस्ट्राल के स्तर को कम करने में मदद करता है।

मधुमेह में लाभदायक 

आज ज्यादातर लोग मधुमेह से पीडि़त हैं। रागी में मौजूद पदार्थ शरीर में शुगर लेवल को नियंत्रित रखते हैं और यदि इसको सुबह नाश्ते या दोपहर को खाने में शामिल कर लिया जाए तो यह पूरे दिन शुगर के स्तर को खून में नियंत्रित रखता है।
स्तनपान कराने वाली महिलाओं के लिए लाभदायक : जो महिला अपने बच्चों को दूध पिलाती हैं उन्हें अपने आहार में रागी को शामिल करना चाहिए। यह मां के दूध को तो बढ़ाता ही है साथ ही दूध को आवश्यक एमिनो एसिड, कैल्शियम प्रदान करता है जो मां और बच्चे के पोषण के लिए आवश्यक है।

अस्सी कली.. बावन गज का मेरा घूम घाघरा..

हरियाणवी लोक वेशभूषा की पारंपरिकता का प्रतीक घाघरा

लोकजीवन में लोकवेशभूषा की परंपरा सदियों पुरानी है। इस परंपरा के निर्वहन एवं हमारी लोकवेशभूषा को समृद्ध से समृद्धता की ओर विकसित करने में महिलाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। घाघरा महिलाओं द्वारा पहने जाने वाला लोकवेशभूषा का वह स्वरूप है जिसका वर्णन हरियाणवी गीतों एवं रागनियों में भी आता है। घाघरे का स्वरूप बड़ा होता है जबकि घाघरी छोटी होती है। घाघरे को ही लोकजीवन में दाम्मण कहा जाता है। लोक में बावन गज का घूम घाघरा एवं अस्सी कली का का दाम्मण विशेष रूप से प्रसिद्ध रहा है। घाघरे के अलग-अलग स्वरूपों को है लह, खारा, कत्था, पहरणा, कैरी आदि भी कहा जाता है। सामाजिक दृष्टि से घाघरा अत्यंत लोकप्रिय रहा है। हरियाणवी नृत्य में नाचने के लिए घाघरे का प्रयोग आज भी आंशिक रूप से देखने को मिलता है। सांगों में पुरुष नृत्यकारों ने घाघरे का प्रयोग कर इसकी लोकप्रियता को और अधिक बढ़ाया है। दादा लख्मीचंद व अन्य सांगियों के सांग में घाघरा पहनकर नृत्य करने की परम्परा विकसित हुई थी। इसलिए घाघरा सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हुई लोक वेशभूषा है। लडक़ी की विदाई से पूर्व आस-पड़ोस की सारी महिलाएं एकत्रित होकर तीज्जण के माध्यम से हरियाणवी लोकवेशभूषाओं की ससुराल में जाने वाली लडक़ी हेतु तैयारी किया करती। उसके बाद ही तिल दिखाई परंपरा का निर्वहन किया जाता था। इतना ही नहीं किसकी बहू कितनी तियल एवं घाघरी लेक के आई इसका चर्चा भी आस-पड़ोस में हुआ करता था। घाघरा लोक में महिलाओं द्वारा कमर से पांव तक पहने जाने वाला लोक परिधान है। इसके घेरदार घेरे की बदौलत ही इसे घाघरे का नाम दिया गया और लामण का अपभ्रंशित रूप ही दाम्मण हो चला है। घाघरा मूलत: कमर पर नाड़े की सहायता से बांधे जाना वाला ऊपर से कम तथा नीचे से अधिक घेरेवाला लोकपरिधान है, इसके नीचे के भाग में लगभग चार-पांच अंगुल चौड़ा कपड़ा अंदर की ओर जोड़ा जाता है, जिससे लामण कहते हैं। लामण और दाम्मण के कपड़े को जोड़ते समय एक बारीक सी रंगीन किनारी भी लगाई जाती है, जिसे मगज़ी कहा जाता है। यह हाथ से बने सूत व जुलाहे से बने खद्दर से बनता है, इसके ऊपर की चीन में नाड़ा डलता है। नाड़े की चीन भी हाथ से ही बनाई जाती है। घाघरा एवं दाम्मण मूलत: ल_े, रेज्जे तथा सूत्ती कपड़े से बनाया जाता है। महिला द्वारा अस्सी कली का घूम-घाघरा तैयार करने में तीन से चार दिन लग जाया करते थे, परंतु नीलबडिय़ों तथा रंगरेज़ों के रंग व  रंगेरेज़े से महिलाएं अपनी घाघरी तैयार करती रही हैं। वह वास्तव में घाघरे एवं दाम्मण से ही जुड़ी हुई विषय-वस्तु है। दाम्मण के वस्त्र की काट-छांट कुछ इस प्रकार की होती है कि इसका नीचे का घेरा अधिक होता है। इसी घेरे की बदौलत महिलाएं अपने नृत्य में दाम्मण का प्रयोग कर अपनी भाव-भंगिमाओं को मूर्त रूप प्रदान करती हैं। विवाह का अवसर हो या बच्चे पैदा होने का, मेल़ा हो या उत्सव सभी नृत्यों में घाघरे एवं दाम्मण का खूब प्रचलन देखने को मिलता है। दर्जी एवं छिप्पी घाघरे के लत्ते को काट-छांट कर अलग-अलग भागों में तुरपता है। इन्हीं भागों को घाघरे की कली कहा जाता है। लोकजीवन में बावन कली का घाघरा विशेष रूप से प्रसिद्ध है। महिलाएं घाघरों के साथ माचिस की डिब्बियों में सरसों तथा कंकर आदि डालकर सील देती हैं, जिससे जो महिला घाघरा पहनकर चलती थी, उससे सामूहिक रूप में लगी माचिसों की आवाज़ अत्यंत मनोरम ध्वनि पैदा करती थी। लोकजीवन में अनेक प्रकार के घाघरों का प्रयोग रहा है जिनमें कैरी घाघरा, चांद-तारा घाघरा, कीकरफुली घाघरा, कंद का घाघरा, चांद-तारों वाला घाघरा, बुंदी घाघरा, रेज्जा घाघरा एवं खारा,
 हरियाणवीं लोकसाहित्य, घाघरे व दाम्मण का परस्पर गहरा सम्बन्ध है। घाघरा लोक परिधान ही नहीं अपितु लोक परम्परा का वह अंग है जिसको जनमानस लोकगीतों, लोककथाओं, लोकगाथाओं, मुहावरों आदि में समाहित पाता है। लोकजीवन में प्रचलित घाघरे एवं दाम्मण से सम्बन्धित लोकोक्तियां एवं मुहावरे जैसे घाघरी तल़ै का, घाघरी उढ़ाणा, घाघरी पहराणा, घाघरी का नाड़ा टूटणा, पाटी घाघरी लुगड़ी जोग्गी होणा, घाघरी की लाम्मण मुड़णा, घाघरी ठाणा, इतणे का काम नीं करवाया, जितणे का घाघरा पड़वा दिया, खूंटी पै घाघरी टंगणा, बिटोड़े पै घाघरा सूखणा, आज भी उतने ही प्रसिद्ध एवं प्रासांगिक हैं। घाघरे की पारम्परिकता का ब्यौरा हरियाणवी लोकगीतों में भी देखने को मिलता है - घुमै-धुमै री मेरा घाघरा, दामण पहरूंगी महल के बीच, मैं छैल गेल्या जांगी, दामण मेरा भारया, दूर का जाणा मैं छैल गेल्या जांगी जैसे अनेकों गीत घाघरे एवं दामण की कसौटी पर खरे उतरते हैं। आधुनिकता की इस दौड़ में लोक पारम्परिक परिधानों की कड़ी में घाघरा भी अतीत का हिस्सा बन कर रह गया है। आवश्यकता है इसको वर्तमान स्वरूप में ढ़ालकर प्रस्तुत करने की ताकि युवा पीढ़ी अपने लोक पारम्परिक परिधान को फिर से अपना सके।

स्रोत : डॉ. महासिंह पूनिया

Thursday, 21 June 2018

कुएं से पानी निकालने में मददगार था रहट


कुएं से पानी निकालने के लिए जरूरी था रहट

लोक पारंपरिक दृष्टि से सिंचाई के साधनों में रहट की विशेष महत्ता है। सत्तर के दशक तक रहट प्रमुख आïवश्यकताओं में थी। रहट में बैलों एवं ऊंट को जोतने की परंपरा रही है। सामाजिक दृष्टि से रहट लोक संचार का सामुदायिक स्थल था। जिस किसान के पास रहट नहीं होता था वह अपने पड़ोसी किसान के रहट से अपने खेत सींचने का काम करता था।
सिंचाई के लिए कुओं से पानी निकालने के लिए बनाए गए यंत्र विशेष को रहट, रंहट, रहटा, अरह_, चरखा, घाटीयंत्र, अरहट, अरघटक, पिरिया आदि नामों से भी जाना जाता है। वेदों में अरगराट (अरघट्ट) शब्द का प्रयोग जलयंत्र के रूप में हुआ है, जिसका अभिप्राय है कि ऐसा कुआं, जिस पर रहट से सिंचाई होती हो। दरअसल, जिस कुएं में सिंचाई के लिए रहट का प्रयोग होता है, उसी को रहटआला कुआं कहा जाता है। पक्के कुएं में ही रहट की स्थापना होती है। रहट में मूलत: तीन चक्कर होते हैं, जिन्हें घड़ी के चक्रोंं की भांति एक-दूसरे से व्यवस्थित करके पानी निकाला जाता है। सबसे पहले रहट की स्थापना करने के लिए कुएं के बीचों-बीच एक लकड़ी रखी जाती है, जिसे बड़सा तथा बरसा कहते हैं। कुएं के ऊपर रहने वाले एक चक्र और बाहर के यंत्रों को जोडऩे वाला लोहे का एक मोटा और लंबा डंडा होता है, जिसे ल_ू कहते हैं। ल_ू के कुएं वाले छोर पर लोहे के दो बड़े चक्र लगे होते हैं, जो सामानांतर रूप से लोहे की सलाखों से जुड़े हुए होते हैं। इन्हें बेड़ अथवा बाड़ कहते हैं। इसी बाड़ के ऊपर लोहे की बालटियों एवं टींडरों को जोड़कर एक माला का स्वरूप प्रदान किया जाता है, जो बेड़ के ऊपर घुमकर कुएं के अंदर से पानी लाती हैं। बाल्टियां जब अंदर से आती हैं, तो वह सीधी होती हैं। कुएं के ऊपरी भाग पर जब उनका मुंह नीचे की तरफ होता है, तो उनका भरा हुआ पानी पाड़छे में गिरता है और इस प्रकार एक के बाद एक बाल्टी पानी भरकर लाती रहती हैं और लगातार बाल्टियां तथा टींडरों के माध्यम से पानी कुएं से बाहर निकलता रहता है। जब तक लोकजीवन में लोहे का प्रयोग नहीं होता था, तो उस समय लोग बाल्टियों की जगह मिट्टी के मटके, घड़े बांधकर पानी की सिंचाई किया करते थे। लोहे की माल के स्थान पर लोकजीवन में लोग मटकों को मूंज की रस्सियों की बेड़ बनाकर उस पर बांधा करते थे। रहट में मूंज की बेड़ के दोनों चक्रों को जोडऩे वाली सलाखों पर बाल्टियों के टिकाव के लिए लोहे की पत्तियां लगी होती हैं, जिन्हें फली तथा खुरपी कहा जाता है। बाल्टियों को एक-दूसरे से जोडऩे वाली कीलें रेड्ढ़ी कहलाती हैं। बाल्टियों का पानी लोहे के पतराल के जिस भाग पर गिरता है, उसको थाल कहा जाता है, जबकि इस पानी को आगे की तरफ ले जाने वाली लोहे की नाली को पतनाल तथा पतरहाल कहा जाता है। कुएं के बाहर पानी गिरने के स्थान को पाड़छे एवं पाड़ज्छा की संज्ञा दी गई है। रहट को चलाने के लिए लाठ का प्रयोग किया जाता है, जिसमें बैल, ऊँट आदि पशु जुतते हैं। इस प्रकार रहट में जब बैल चलते हैं, तो उनके कंधे पर रखे हुए जूए से डंडील़ खिंचती है, डंडील पांठ को खिंचती है, पाअ्ंट चकले को चलाती है, चकला चकली को चलाता है, चकली लट्टू को चलाती है, लट्टू रहट के चक्कर को चलाता है, चक्कर पर माल लगी होती है, माल से बाल्टियां घुमती है, बाल्टियों के घुमने से उनमें पानी भरता है, इस प्रकार बाल्टियां चक्र के ऊपर से घुमती हुई खाली हो जाती हैं और पतराल के माध्यम से पानी खेतों को सिंचता है। देहात में जहां पहले लोहे की बाल्टियों के स्थान पर मटकों का प्रयोग होता रहा है। वास्तव में रहट ढ़ेकली परंपरा का विकसित स्वरूप है।
प्रस्तुति : डॉ. महासिंह पूनिया
प्रभारी धरोहर हरियाणा संग्रहालय

Monday, 18 June 2018

गांव में दादाखेड़े से बढ़कर कोई धरोहर नहीं..


  1. लोकजीवन में भौंमियां, भैंया-खेड़ा, दादा-खेड़ा की पहचान देहात में ग्राम देवता के रूप में होती है। वास्तव में ऊंचे टीले पर गांव बसाने से पहले जहां भूमि की पूजा की जाती है, वही स्थल भौंमियां तथा खेड़े के रूप में चिहिनत कर दिया जाता है। खेड़ा ग्रामवासियों का इष्ट देवता होता है। लोकजीवन में खेड़ा ग्राम देवता के रूप में जाना जाता है। ग्रामीण इसे खेड़ा, बाबा खेड़ा तथा दादा-खेड़ा कहकर सम्मान से पूजते हैं। लोकजीवन में खेड़े की पूजा प्रत्येक शुभकार्य की शुरुआत में की जाती है। लोक में विवाह में बरात चढऩे से पहले तथा घुड़चढ़ी पर खेड़े की पूजा करने की परम्परा लोकजीवन में विद्यमान है। देहात में दूल्हा-दुल्हन की घर वापसी पर उनके द्वारा गठजोड़े में खेड़े की पूजा की जाती है। गांवों में प्रत्येक त्योहार पर खेड़े पर दीप जलाने की रिवाज़ है तथा गाय-भैंस के ब्याने (बच्चे के जन्म देने पर) पर खीस (पहली बार निकाला दूध) चढ़ाया जाता है। उधर, खेड़े का संबंध मानव विकास की कड़ी से भी जुड़ा हुआ है। खेड़ा वह खंडित बस्ती का ढूह या टीला या स्थल है, जहां बस्ती ध्वस्त हो गई, ऐसे खेड़े को ऊज्जड़ खेड़ा तथा खंडित खेड़ा भी कहते हैं। ऐसे खेड़ों से अवशेष के रूप में वहां वर्षा के कटाव के समय मिट्टी से टूटे बर्तन, सिक्के, मूर्तियां आदि प्राप्त होती हैं। प्राकृत भाषा में इसे खेडय तथा संस्कृत में खेटक कहते हैं। यह लोकनिवासियों के लिए पूज्य स्थल है। लोक में ऐसे स्थल पर छोटी मढ़ी भी बना दी जाती है, जिसमें दीपक जलाने की व्यवस्था होती है। मढ़ी के आस पर दो ईंटें खड़ी करके थान (स्थानीय पीर) या मोरखा (पित्तर) बना दिया जाता है, जिसमें दीया जलाया जाता है। खेड़े पर पूर्णिमा, अमावस, शनिवार, मंगलवार तथा रविवार आदि दिनों पर श्रद्धालुओं की भीड़ लगती है, जो छोटे मेले का रूप ले लेती है। भक्त मढ़ी पर मीठा दलिय़ा, बताशे, नई फसल के प्रतीक रूप में सम्मानार्थ भेंट चढ़ाते हैं, भक्त खेड़े पर कच्ची लस्सी, दूध, खीस आदि भी चढ़ाते हैं। चढ़ावे को आस-पास के जीव-जंतु आदि खाते रहते हैं। लोक में एक गांव बसाते समय खंडित खेड़े की मिट्टी ले जाई जाती है और उसे सम्मानपूर्वक स्थापित कर वहां मंडप, चबूतरा आदि बना दिया जाता है। श्रद्धालु भक्त वहां मन्नत मांगने आते हैं और कामना पूरी होने पर श्रद्धानुसार भेंट चढ़ाते हैं, यज्ञ कराते हैं और खीर आदि के भण्डारे का आयोजन करते हैं। मन्नत पूरी होने पर यहां सिरणी भी बांटते हैं। लोकमान्यता के अनुसार खेड़े बाबा की शक्ति भगवान से भी अधिक है। ऐसी मान्यता है कि बिना इसकी अनुमति के कोई भी भूत-प्रेत, विघ्नकारी शक्ति, संक्रामक रोग आदि गांव में प्रवेश नहीं कर सकता। यह कृपालु है, वरदाता है, लोकजीवन में ऐसी मान्यता है कि दादाखेड़ा की उपेक्षा होने पर अपना क्रोध भी प्रकट करता है, इसे शांत करने के लिए महिलाएं शीतल जल चढ़ाती हैं। लोक में खेड़ा नामवाची सैकड़ों गांव हैं, उनकी पहचान के लिए पहले या बाद में किसी विशेषण या निकट के गांव, कस्बे आदि का नाम जोड़ा जाता है। सामूहिक कार्य निर्विघ्न सम्पन्न होने, स्वांग आदि समाप्त होने तथा खेड़े के स्थानीय देवता के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के लिए सामूहिक रूप से - 'बोल नगर खेड़े की जयÓ की अभिव्यक्ति की जाती है, यह अभिव्यक्ति लोकवासियों के लिए भरतवाक्य है। ग्रामीण संस्कृति में दादाखेड़ा वो पावन पवित्र स्थल है जो गांव के हर घर में होने वाले उत्सवों का साक्षी है। लोकजीवन में प्रचलन है कि बरसात के दिनों में पशुओं में कोई रोग न आए इसलिए गांव की सीमा पर जोगियों द्वारा हीर-रांझा का गायन कर दादाखेड़े को खुश किया जाता है। अनेक स्थलों पर इसे भईया खेड़ा भी कहते हैं। यह गांव के सभी लोगों के लिए आदरणीय स्थल होता है। इसकी देख-रेख भी सामूहिक रूप से होती है। लोग इसको ग्रामदेवता के रूप में पूजते हैं।


--प्रस्तुति :
डॉ. महासिंह पूनिया
प्रभारी धरोहर हरियाणा संग्रहालय

Thursday, 26 April 2018


गर्मियों में भी नहीं घटेगा दुग्ध उत्पादन

एनडीआरआइ के वैज्ञानिकों की शोध ने जगाई उम्मीद
दुधारू पशुओं के प्रोटीन का प्रबंधन करने के कारगर उपाय 


यह खुशखबरी है। अब गर्मी के मौसम का दूध उत्पादन पर असर नहीं पड़ेगा। वैज्ञानिक शोधों में इस दिशा में उत्साहजनक परिणाम आए हैं। इन दिनों दूध का उत्पादन औसतन 10 प्रतिशत तक कम हो जाता है। पशुओं में पाए जाने वाले खास प्रकार के प्रोटीन इसके मुख्य कारक हैं।
एनडीआरआइ (राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान) के प्रधान वैज्ञानिक डॉ. महेंद्र कुमार बताते हैं कि तापमान के 48 डिग्री सेल्सियस के आसपास पहुंचते ही पशु के मार्कर सेल डैमेज होने शुरू हो जाते हैं। इसे बचाने के लिए प्रोटीन अपनी सक्रियता बढ़ा देते हैं। यही प्रोटीन दूध बनाने में कारक होते हैं। लिहाजा इसका असर पशु के दूध पर पड़ता है। इन दिनों नेशनल इनोवेशन ऑन क्लाइमेट रिसिलीएंट एग्रीकल्चर प्रोजेक्ट (निकरा) के तहत थारपारकर व संकर नस्ल की गायों व भैंसों पर शोध हो रहा है। इन पशुओं में 547 प्रकार के प्रोटीन मिले हैं। इनमें 106 प्रोटीन की पहचान हुई है जो गर्मी में पशुओं को संवेदनशील बना देते हैं और दूध की कमी का वजह बनते हैं। इसका सीधा संबंध पशुपालक की आय से है। एक भैंस से प्रतिवर्ष पशुपालक को 50 हजार रुपये तक का नुकसान हो जाता है।

इस तरह बचाव संभव
वैज्ञानिकों के मुताबिक कुछ जरूरी उपाय कर दूध उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव को रोका जा सकता है। इसके लिए पशु की खुराक में बदलाव करने होंगे। एनर्जी ज्यादा मिले इसके लिए प्री फैट देने होंगे। ज्यादा से ज्यादा हरा चारा दिया जाए और यदि यह संभव न हो तो माइक्रोन्यूट्रेंट, विटामिन ई, जिंक व कॉपर युक्त मिक्चर बनाकर इस्तेमाल हो। पशुशाला में भी बदलाव करके उसे खुली और हवादार बनानी होगी। पशुओं के लिए पीने का साफ पानी और छत पर घासफूंस रख उसे ठंडा रखना उपयोगी है।

तापमान झेलने में सक्षम
साहीवाल व थारपारकर

दुधारू पशुओं पर गर्मी के प्रभाव का अध्ययन कर रहे डॉ. महेंद्र और डॉ. अंजलि अग्रवाल बताते हैं कि थारपारकर व साहीवाल नस्लें 46 से 48 डिग्री तापमान में भी स्वयं को ढालने में सक्षम हैं। संकर नस्ल की गाय पर 30 डिग्री से ऊपर तापमान जाते ही गर्मी का असर दिखने लगता है।

प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता 252 ग्राम

उत्तर प्रदेश 16.83 मिलियन टन प्रतिदिन दुग्ध उत्पादन के साथ देशभर में पहले स्थान पर है। हरियाणा का स्थान आठवां है और प्रतिदिन दुग्ध उत्पादन 5.48 मिलियन टन है। देशभर में प्रति व्यक्ति 252 ग्राम दूध की उपलब्धता है। देसी गायों को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने योजनाएं शुरू की हैं, जिसके परिणाम भी आए हैं। देसी गायों की तरफ भी पशुपालकों का रूझान पहले के मुकाबले बढ़ा है। फिलहाल 48.2 मिलियन देसी गाय दुधारू हैं जबकि 19.42 मिलियन गाय संकर नस्ल की हैं। देशभर में 163.7 मिलियन टन पर प्रतिदिन दूध उत्पादन होता है। इनमें 47.23 प्रतिशत गाय का है। भैंस का 40.10 प्रतिशत है। बकरी का 3.43 प्रतिशत है।
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तालिका
पशु (मिलियन) दुधारू (दुग्ध उत्पादन में भागीदारी (प्रतिशत)
गाय 190 67.62 47.23
भैंस 108 51.5 40.10


शोध के सकारात्मक परिणाम
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निकरा के प्रोजेक्ट पर करनाल के दो गांवों, दिलावरा और ढाकवाला में शोध चल रही है। 50 भैंसों और गायों पर हुए शोध में अभी तक सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं। हम कोशिश कर रहे हैं कि जो अच्छे प्रोटीन हैं उनको और अच्छा कैसे किया जाए, ताकि पशुओं में उनको अच्छी तरह से विकसित कर दूध की मात्रा को मेंटेन रख सकें। --डॉ. महेंद्र कुमार, प्रधान वैज्ञानिक, एनडीआरआइ, करनाल।