Thursday, 21 June 2018

कुएं से पानी निकालने में मददगार था रहट


कुएं से पानी निकालने के लिए जरूरी था रहट

लोक पारंपरिक दृष्टि से सिंचाई के साधनों में रहट की विशेष महत्ता है। सत्तर के दशक तक रहट प्रमुख आïवश्यकताओं में थी। रहट में बैलों एवं ऊंट को जोतने की परंपरा रही है। सामाजिक दृष्टि से रहट लोक संचार का सामुदायिक स्थल था। जिस किसान के पास रहट नहीं होता था वह अपने पड़ोसी किसान के रहट से अपने खेत सींचने का काम करता था।
सिंचाई के लिए कुओं से पानी निकालने के लिए बनाए गए यंत्र विशेष को रहट, रंहट, रहटा, अरह_, चरखा, घाटीयंत्र, अरहट, अरघटक, पिरिया आदि नामों से भी जाना जाता है। वेदों में अरगराट (अरघट्ट) शब्द का प्रयोग जलयंत्र के रूप में हुआ है, जिसका अभिप्राय है कि ऐसा कुआं, जिस पर रहट से सिंचाई होती हो। दरअसल, जिस कुएं में सिंचाई के लिए रहट का प्रयोग होता है, उसी को रहटआला कुआं कहा जाता है। पक्के कुएं में ही रहट की स्थापना होती है। रहट में मूलत: तीन चक्कर होते हैं, जिन्हें घड़ी के चक्रोंं की भांति एक-दूसरे से व्यवस्थित करके पानी निकाला जाता है। सबसे पहले रहट की स्थापना करने के लिए कुएं के बीचों-बीच एक लकड़ी रखी जाती है, जिसे बड़सा तथा बरसा कहते हैं। कुएं के ऊपर रहने वाले एक चक्र और बाहर के यंत्रों को जोडऩे वाला लोहे का एक मोटा और लंबा डंडा होता है, जिसे ल_ू कहते हैं। ल_ू के कुएं वाले छोर पर लोहे के दो बड़े चक्र लगे होते हैं, जो सामानांतर रूप से लोहे की सलाखों से जुड़े हुए होते हैं। इन्हें बेड़ अथवा बाड़ कहते हैं। इसी बाड़ के ऊपर लोहे की बालटियों एवं टींडरों को जोड़कर एक माला का स्वरूप प्रदान किया जाता है, जो बेड़ के ऊपर घुमकर कुएं के अंदर से पानी लाती हैं। बाल्टियां जब अंदर से आती हैं, तो वह सीधी होती हैं। कुएं के ऊपरी भाग पर जब उनका मुंह नीचे की तरफ होता है, तो उनका भरा हुआ पानी पाड़छे में गिरता है और इस प्रकार एक के बाद एक बाल्टी पानी भरकर लाती रहती हैं और लगातार बाल्टियां तथा टींडरों के माध्यम से पानी कुएं से बाहर निकलता रहता है। जब तक लोकजीवन में लोहे का प्रयोग नहीं होता था, तो उस समय लोग बाल्टियों की जगह मिट्टी के मटके, घड़े बांधकर पानी की सिंचाई किया करते थे। लोहे की माल के स्थान पर लोकजीवन में लोग मटकों को मूंज की रस्सियों की बेड़ बनाकर उस पर बांधा करते थे। रहट में मूंज की बेड़ के दोनों चक्रों को जोडऩे वाली सलाखों पर बाल्टियों के टिकाव के लिए लोहे की पत्तियां लगी होती हैं, जिन्हें फली तथा खुरपी कहा जाता है। बाल्टियों को एक-दूसरे से जोडऩे वाली कीलें रेड्ढ़ी कहलाती हैं। बाल्टियों का पानी लोहे के पतराल के जिस भाग पर गिरता है, उसको थाल कहा जाता है, जबकि इस पानी को आगे की तरफ ले जाने वाली लोहे की नाली को पतनाल तथा पतरहाल कहा जाता है। कुएं के बाहर पानी गिरने के स्थान को पाड़छे एवं पाड़ज्छा की संज्ञा दी गई है। रहट को चलाने के लिए लाठ का प्रयोग किया जाता है, जिसमें बैल, ऊँट आदि पशु जुतते हैं। इस प्रकार रहट में जब बैल चलते हैं, तो उनके कंधे पर रखे हुए जूए से डंडील़ खिंचती है, डंडील पांठ को खिंचती है, पाअ्ंट चकले को चलाती है, चकला चकली को चलाता है, चकली लट्टू को चलाती है, लट्टू रहट के चक्कर को चलाता है, चक्कर पर माल लगी होती है, माल से बाल्टियां घुमती है, बाल्टियों के घुमने से उनमें पानी भरता है, इस प्रकार बाल्टियां चक्र के ऊपर से घुमती हुई खाली हो जाती हैं और पतराल के माध्यम से पानी खेतों को सिंचता है। देहात में जहां पहले लोहे की बाल्टियों के स्थान पर मटकों का प्रयोग होता रहा है। वास्तव में रहट ढ़ेकली परंपरा का विकसित स्वरूप है।
प्रस्तुति : डॉ. महासिंह पूनिया
प्रभारी धरोहर हरियाणा संग्रहालय

Monday, 18 June 2018

गांव में दादाखेड़े से बढ़कर कोई धरोहर नहीं..


  1. लोकजीवन में भौंमियां, भैंया-खेड़ा, दादा-खेड़ा की पहचान देहात में ग्राम देवता के रूप में होती है। वास्तव में ऊंचे टीले पर गांव बसाने से पहले जहां भूमि की पूजा की जाती है, वही स्थल भौंमियां तथा खेड़े के रूप में चिहिनत कर दिया जाता है। खेड़ा ग्रामवासियों का इष्ट देवता होता है। लोकजीवन में खेड़ा ग्राम देवता के रूप में जाना जाता है। ग्रामीण इसे खेड़ा, बाबा खेड़ा तथा दादा-खेड़ा कहकर सम्मान से पूजते हैं। लोकजीवन में खेड़े की पूजा प्रत्येक शुभकार्य की शुरुआत में की जाती है। लोक में विवाह में बरात चढऩे से पहले तथा घुड़चढ़ी पर खेड़े की पूजा करने की परम्परा लोकजीवन में विद्यमान है। देहात में दूल्हा-दुल्हन की घर वापसी पर उनके द्वारा गठजोड़े में खेड़े की पूजा की जाती है। गांवों में प्रत्येक त्योहार पर खेड़े पर दीप जलाने की रिवाज़ है तथा गाय-भैंस के ब्याने (बच्चे के जन्म देने पर) पर खीस (पहली बार निकाला दूध) चढ़ाया जाता है। उधर, खेड़े का संबंध मानव विकास की कड़ी से भी जुड़ा हुआ है। खेड़ा वह खंडित बस्ती का ढूह या टीला या स्थल है, जहां बस्ती ध्वस्त हो गई, ऐसे खेड़े को ऊज्जड़ खेड़ा तथा खंडित खेड़ा भी कहते हैं। ऐसे खेड़ों से अवशेष के रूप में वहां वर्षा के कटाव के समय मिट्टी से टूटे बर्तन, सिक्के, मूर्तियां आदि प्राप्त होती हैं। प्राकृत भाषा में इसे खेडय तथा संस्कृत में खेटक कहते हैं। यह लोकनिवासियों के लिए पूज्य स्थल है। लोक में ऐसे स्थल पर छोटी मढ़ी भी बना दी जाती है, जिसमें दीपक जलाने की व्यवस्था होती है। मढ़ी के आस पर दो ईंटें खड़ी करके थान (स्थानीय पीर) या मोरखा (पित्तर) बना दिया जाता है, जिसमें दीया जलाया जाता है। खेड़े पर पूर्णिमा, अमावस, शनिवार, मंगलवार तथा रविवार आदि दिनों पर श्रद्धालुओं की भीड़ लगती है, जो छोटे मेले का रूप ले लेती है। भक्त मढ़ी पर मीठा दलिय़ा, बताशे, नई फसल के प्रतीक रूप में सम्मानार्थ भेंट चढ़ाते हैं, भक्त खेड़े पर कच्ची लस्सी, दूध, खीस आदि भी चढ़ाते हैं। चढ़ावे को आस-पास के जीव-जंतु आदि खाते रहते हैं। लोक में एक गांव बसाते समय खंडित खेड़े की मिट्टी ले जाई जाती है और उसे सम्मानपूर्वक स्थापित कर वहां मंडप, चबूतरा आदि बना दिया जाता है। श्रद्धालु भक्त वहां मन्नत मांगने आते हैं और कामना पूरी होने पर श्रद्धानुसार भेंट चढ़ाते हैं, यज्ञ कराते हैं और खीर आदि के भण्डारे का आयोजन करते हैं। मन्नत पूरी होने पर यहां सिरणी भी बांटते हैं। लोकमान्यता के अनुसार खेड़े बाबा की शक्ति भगवान से भी अधिक है। ऐसी मान्यता है कि बिना इसकी अनुमति के कोई भी भूत-प्रेत, विघ्नकारी शक्ति, संक्रामक रोग आदि गांव में प्रवेश नहीं कर सकता। यह कृपालु है, वरदाता है, लोकजीवन में ऐसी मान्यता है कि दादाखेड़ा की उपेक्षा होने पर अपना क्रोध भी प्रकट करता है, इसे शांत करने के लिए महिलाएं शीतल जल चढ़ाती हैं। लोक में खेड़ा नामवाची सैकड़ों गांव हैं, उनकी पहचान के लिए पहले या बाद में किसी विशेषण या निकट के गांव, कस्बे आदि का नाम जोड़ा जाता है। सामूहिक कार्य निर्विघ्न सम्पन्न होने, स्वांग आदि समाप्त होने तथा खेड़े के स्थानीय देवता के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के लिए सामूहिक रूप से - 'बोल नगर खेड़े की जयÓ की अभिव्यक्ति की जाती है, यह अभिव्यक्ति लोकवासियों के लिए भरतवाक्य है। ग्रामीण संस्कृति में दादाखेड़ा वो पावन पवित्र स्थल है जो गांव के हर घर में होने वाले उत्सवों का साक्षी है। लोकजीवन में प्रचलन है कि बरसात के दिनों में पशुओं में कोई रोग न आए इसलिए गांव की सीमा पर जोगियों द्वारा हीर-रांझा का गायन कर दादाखेड़े को खुश किया जाता है। अनेक स्थलों पर इसे भईया खेड़ा भी कहते हैं। यह गांव के सभी लोगों के लिए आदरणीय स्थल होता है। इसकी देख-रेख भी सामूहिक रूप से होती है। लोग इसको ग्रामदेवता के रूप में पूजते हैं।


--प्रस्तुति :
डॉ. महासिंह पूनिया
प्रभारी धरोहर हरियाणा संग्रहालय