हरियाणा
में लोकसभा चुनाव के नतीजों से साफ हो गया है कि यहां भी भाजपा के प्रधानमंत्री पद
के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की ही लहर चली। प्रदेश की दस लोकसभा सीटों में सात पर हजकां-भाजपा
गठबंधन को जीत मिली जो खालिस भाजपा के खाते में गई हैं। रोहतक से दीपेंद्र हुड्डा
को विजयी बनाकर लोगों ने मुख्यमंत्री के योगदान का कर्ज चुकाया है।
कभी हरियाणा
के भाजपा प्रभारी रहे नरेंद्र मोदी ने अपने अघोषित चुनावी अभियान की शुरुआत ही
रेवाड़ी में रैली कर की थी, जिसकी सफलता ने विपक्षी दलों के कान खड़े कर दिए थे।
हालांकि उसके बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी रैली की, लेकिन वह मोदी की
रैली का प्रभाव कम नहीं कर सकी। हजकां से गठबंधन पर छाए असमंजस की स्थिति ने जरूर
भाजपा को नुकसान पहुंचाया और चुनावी रणनीति में वह पिछड़ती दिखी, लेकिन नरेंद्र
मोदी की ताबड़तोड़ रैलियों ने सारी कमी की भरपाई कर दी। मोदी ने गोहाना, गुड़गांव,
कुरुक्षेत्र और झज्जर में रैलियां की। जाटलैंड सोनीपत में मोदी की गोहाना रैली ने
सोनीपत समेत कई लोकसभा क्षेत्रों में पार्टी को चुनावी मुकाबले में आगे कर दिया।
हजकां से गठबंधन पर उन्होंने न केवल मजबूती से मुहर लगाई बल्कि अपने पुराने दोस्त
इनेलो को आईना दिखा दिया। राजनीतिक योद्धा के रूप में उनका इनेलो पर हमला अचूक
साबित हुआ। हालांकि पंजाब में एनडीए के सहयोगी शिरोमणि अकाली दल द्वारा हरियाणा
में इनेलो का समर्थन करना जरूर लोगों को नागवार लगा। हजकां प्रमुख ने तो इस पर
कड़ी आपत्ति दर्ज कराई तो भाजपा नेता नाराज दिखे। पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह
बादल और उनके पुत्र सुखबीर की इनेलो के समर्थन में रैलियों ने इनेलो को सिरसा,
हिसार और कुरुक्षेत्र लोकसभा सीटों पर काफी मजबूत किया।
भाजपा
ने भी की गलतियां
ऐसा नहीं
है कि चुनाव में भाजपा ने गलतियां नहीं की। गठबंधन पर लंबे समय तक असमंजस की स्थिति
हो या प्रत्याशी चयन में गड़बड़ियां, एक बार तो कार्यकर्ताओं को निराश कर दिया था।
पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष पर टिकट बेचने का आरोप लगा। रोहतक में पार्टी प्रत्याशी
मोदी के खासमखास ओमप्रकाश धनखड़ को टिकट का विरोध कर रहे कार्यकर्ताओं ने नेताओं
के साथ जूतमपैजार की और प्रदेश अध्यक्ष रामबिलास शर्मा को छिपकर भागना पड़ा तो
सोनीपत में पार्टी के दिगग्ज दिवंगत किशनसिंह सांगवान के पुत्र प्रदीप सांगवान ने
विरोध में पार्टी छोड़ दी। पानीपत, कुरुक्षेत्र, भिवानी में खुलकर तो गुड़गांव में
अंदरूनी रूप से विरोध हुआ। कुछ दिन पहले कांग्रेस से आए राव इंद्रजीत, धर्मबीर
सिंह, रमेश चंद्र कौशिक, राजकुमार सैनी को टिकट देकर पार्टी ने कांग्रेस को
बैठे-बिठाए मुद्दा थमा दिया था। मुख्यमंत्री रैलियों में कहते रहे कि भाजपा के पास
तो प्रत्याशी ही नहीं हैं, लिहाजा उसने कांग्रेस से उधार लिए लोगों को टिकट दिया।
कांग्रेस
तो लड़ी ही नहीं
दूसरी तरफ
कांग्रेस पूरे चुनाव में बिखरी रही। देखा जाए तो इस चुनाव में कांग्र्रेस
एक पार्टी के रूप में लड़ी ही नहीं। मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा वनमैन आर्मी
रहे। हालत यह रही कि अनुशासन का डंडा चलाए जाने की धमकी के बाद कुमारी सैलजा अपने पसंदीदा
प्रत्याशियों के साथ अनमने भाव से खड़ी हुईं। बीरेंद्र सिंह भी कुछ खास लोगों के
साथ ही दिखे। हुड्डा विरोधी खेमा एक तरह से चुनाव प्रचार से दूर ही रहा। अगर कहीं
कांग्र्रेस ने टक्कर दी तो वह पार्टी नहीं, बल्कि प्रत्याशी की वजह से।
स्वयं दीपेंद्र हुड्डा अस्वस्थता के कारण सिर्फ नामांकन के समय आ सके और प्रदेश
कांग्र्रेस अध्यक्ष अशोक तंवर अपनी सीट बचाने के लिए जूझते रहे। हुड्डा द्वारा
सोनीपत और रोहतक सीट को प्रतिष्ठा से जोडऩे के बावजूद पार्टी में हताशा का माहौल
रहा। हिसार में तो चुनाव पूर्व ही पार्टी प्रत्याशी संपत सिंह ने अपनी हार मान ली
थी। यही हाल अंबाला का रहा। भिवानी-महेंद्रगढ़ सीट से बंसीलाल की विरासत को आगे
बढ़ा रही श्रुति चौधरी तो फरीदाबाद से अवतार भड़ाना ने जरूर मजबूती दिखाई। गुडग़ांव
में कैप्टन अजय द्वारा टिकट लेने से इन्कार करने के बाद पार्टी ने हुड्डा समर्थक
राव धर्मपाल को मैदान ने उतारा लेकिन वह शुरू से चौथे नंबर पर दिखाई दिए। करनाल
लोकसभा सीट पर अरविंद शर्मा की स्थिति अजीबोगरीब रही। सबसे मजबूत प्रत्याशी माने
जाने के बावजूद वह शुरू से ही पिछड़ते गए। मुख्यमंत्री के खास रहे पूर्व मंत्री
विनोद शर्मा ने भी उनका साथ छोड़ दिया। भाजपा, हजकां, इनेलो यहां तक कि बसपा के
दरबार में मत्था टेकने के बावजूद उन्हें कुछ नहीं मिला।
इनेलो
को मिला बादल का सहारा
अपने प्रमुख
ओमप्रकाश चौटाला और दिग्गज नेता अजय चौटाला के जेल जाने की वजह से असहाय दिख रहे
इनेलो के लिए यह अस्तित्व की लड़ाई थी। कार्यकर्ता तो मजबूती से खड़े रहे, लेकिन
पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने संकट के समय इनेलो के साथ खड़ा होकर
पुरानी मित्रता निभाई। पूर्व उपप्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल और बादल की घनिष्ठता
रही और दोनों ने कंधे से कंधा मिलाकर कई राजनीतिक लड़ाइयां लड़ीं।
हजकां
की उम्मीदों पर फिरा पानी
हरियाणा
जनहित कांग्रेस (बीएल) को भाजपा का साथ जरूर मिला, लेकिन उनका राजनीतिक अस्तित्व इस
चुनाव पर टिका हुआ था। स्वयं को राजनेता के रूप में साबित करने के लिए कुलदीप को
यह चुनाव जीतना जरूरी थी, लेकिन इनेलो के दांव ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया।
एक बार करनाल लोकसभा सीट मिलने के बाद उसे वापस करनी पड़ी और सिरसा से कांग्रेस से
आए सुशील इंदौरा को मैदान में उतारा, लेकिन वे भी कुछ कर नहीं पाए।
नहीं
दिखा आप का जादू
प्रदेश में
पहली बार चुनावी मैदान में उतरी आम आदमी पार्टी से उम्मीद की जा रही थी कि दिल्ली
के बाद हरियाणा में भी उसका जादू दिखेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। प्रत्याशी चयन का ही
जिस तरह विरोध हुआ, उसने समर्थकों को अलग कर दिया। पार्टी के सिद्धांतकार योगेंद्र
यादव गुड़गांव से मैदान में उतरे, लेकिन शुरू से ही वे मुकाबले में नहीं रहे।
रोहतक से नवीन जयहिंद ने शोर जरूर मचाया लेकिन कर कुछ नहीं पाए। बहुजन समाज पार्टी
की प्रमुख मायावती ने अंबाला में रैली की, लेकिन उसका असर नहीं दिखा।