Sunday, 12 July 2020


राहुल गांधी होने का मतलब


राजनीति में बहुत कम ऐसे सौभाग्यशाली लोग होते हैं, जो गलतियां करने के बावजूद अपनी अपरिहार्यता बनाए रखते हैं। राहुल गांधी उन्हीं चुनिंदा नेताओं में हैं। ताजा मामला तीन भारतीय फोटो पत्रकारों यासीन डार, मुख्तार खान और चन्नी आनंद को फीचर फोटोग्राफी श्रेणी में प्रतिष्ठित पुलित्जर पुरस्कार से जुड़ा है। यह पत्रकारिता के क्षेत्र का दुनिया का सबसे बड़ा पुरस्कार माना जाता है। इसके बावजूद भारत में इसको लेकर खास प्रसन्नता नहीं दिखी तो इसलिए कोलंबिया यूनिवर्सिटी के पुलित्जर बोर्ड की टिप्पणी लोगों को नागवार गुजरी। पुरस्कार देते हुए उसने लिखा, यह कश्मीर के विवादास्पद क्षेत्र में जिंदगी की तस्वीरों को उकेरने के लिए दिया गया है, जहां भारत ने उनकी स्वतंत्रता को रद किया और इस पूरे घटनाक्रम के दौरान वहां कम्युनिकेशन ब्लैकआउट को लागू किया गया था। जिस भारतीय मीडिया को सबसे ज्यादा खुश होना चाहिए था, वह इस पर चर्चा तक करने को तैयार नहीं है। अब राहुल गांधी को देखिए। उन्होंने ट्वीट कर न केवल बधाई दी, बल्कि यह भी लिख दिया कि इन तीनों फोटो पत्रकारों ने पिछले साल अगस्त में अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद, क्षेत्र में लॉकडाउन के दौरान की गई अपनी फोटोग्राफी के लिए यह पुरस्कार जीता है। 
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब राहुल गांधी देश के जनमानस के खिलाफ गए हों। इस कृत्य के लिए चाहे जितनी लानत-मलानत हो रही है, लेकिन वह अपनी गलती मानने को शायद ही तैयार हों। आने वाले 19 जून को पचास वर्ष के होने जा रहे राहुल गांधी यह समझने को तैयार नहीं दिखते कि दुर्योग से ही सही, वह सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली एक राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष रहे हैं। उनकी एक शानदार राजनीतिक विरासत है। पिता राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री के रूप में देश को मजबूत पंचायती व्यवस्था दी और कंप्यूटर युग में प्रवेश कराया। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष मां सोनिया गांधी के मार्गदर्शन में विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री के रूप में दस साल तक देश की सेवा की। कभी दुनिया की सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्रियों में शुमार रहीं इंदिरा गांधी के पौत्र और देश के पहले प्रधानमंत्री व स्वतंत्रता संग्राम के नायक पंडित जवाहर लाल नेहरू के पनाती हैं। 

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1928 में अध्यक्ष रहे पंडित मोतीलाल नेहरू की वंशपरंपरा के इस कुलदीपक से यह अपेक्षा तो की जा सकती है कि वह सोच-समझकर और देश हित का ध्यान रखकर ही कुछ बोलेंगे। मगर, राहुल गांधी के व्यवहार से ऐसा लगता है कि उनके साथ घोर अन्याय किया जाता रहा है। जिम्मेदारी की ऐसी बेडिय़ां उनकी स्वतंत्रता का हनन कर रही हैं। उनके साथ वीवीआइपी जैसा बर्ताव नहीं होना चाहिए। उन्हेंं भी आम आदमी की तरह कहीं भी और कभी भी आने-जाने, घूमने-फिरने, खाने-पीने और ऐशोआराम का अधिकार है। सबसे ज्यादा हनन तो बोलने की आजादी का हो रहा है। वह जेएनयू में टुकड़े-टुकड़े गैंग के प्रदर्शन में शामिल होते हैं तो हंगामा खड़ा हो जाता है। वह देश के प्रधानमंत्री को चोर बताते हैं तो लोग सुप्रीम कोर्ट पहुंच जाते हैं और उन्हेंं माफी मांगने की नौबत आ जाती है। माफी मांगने पर प्रशंसा की बजाय आलोचना होती है। हालांकि वह अपने स्तर पर पूरी कोशिश कर रहे हैं कि आम आदमी की आवाज बनें। तभी तो अपनी ही पार्टी की सरकार के कैबिनेट से पारित प्रस्ताव को वह सरेआम फाड़ देते हैं। डोकलाम को लेकर जब पूरे देश प्रधानमंत्री के साथ खड़ा होता है, वह चीन के समर्थन में बयानबाजी कर रहे होते हैं। वायुसेना की वर्षों पुरानी मांग पूरा करने के लिए सरकार लड़ाकू विमान राफेल को भारत ला रही होती है, तो राहुल उसकी खरीद में भ्रष्टाचार की बू सूंघते और विश्वस्तर पर उसके खिलाफ अभियान चला रहे होते हैं। उनकी ढीढता देखिए कि देश की सर्वोच्च अदालत से आरोप खारिज किए जाने के बाद भी पीछे नहीं हटते। बालाकोट सॢजकल स्ट्राइक पर सवाल उठाने वालों में वह सबसे आगे रहते हैं। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने पर उनकी पार्टी के नेता इंग्लैंड में भारत सरकार के खिलाफ प्रदर्शन प्रायोजित कराते हैं। ऐसी तमाम उपलब्धियां हैं जो राहुल गांधी के समर्थक उनके खाते में दर्ज कर सकते हैं।

मगर, देश राहुल गांधी, उनकी पार्टी कांग्रेस तथा करोड़ों कांग्रेसियों से आगे भी है। कुछ तो है जो वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को पूरे देश में बुरी तरह हार झेलनी पड़ी। वर्ष 2019 के चुनाव में भी वही दुहराया गया। वह खुद पैतृक सीट रायबरेली से लोकसभा चुनाव हार गए। कुछ राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अगर कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव जीता तो क्या इसका श्रेय वाकई राहुल गांधी को दिया जा सकता है। सच्चाई यह है कि इन राज्यों का चुनाव स्थानीय नेतृत्व पर लड़ा और जीता गया। इसलिए कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व इन चुनावों को अपने खाते में नहीं जोड़ सकता।
दरअसल, राजनीति फूलों की सेज नहीं होती। कम से कम राष्ट्र का नेतृत्व करने के आकांक्षी राजनेता पर तो यह लागू होता ही है। इसलिए ऐसे व्यक्ति में ईमानदारी, त्याग, समर्पण, संगठन और नेतृत्व क्षमता के साथ बलिदान भावना की अपेक्षा होती है। मगर, सबसे जरूरी अथक यानी हार नहीं मानने वाला होना चाहिए। विपरित परिस्थितियों को भी अनुकूल बनाने की क्षमता और इसके लिए आवश्यक धैर्य होना चाहिए। इतिहास गवाह है कि वही विजयी रहा है, जिसने अंत तक हार नहीं मानी। अब राहुल गांधी को देखें। 2019 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और पार्टी को उसके हाल पर छोड़कर कोपभवन में चले गए। निश्चित रूप से पार्टी को उनकी सद्इच्छा का सम्मान करना चाहिए था, लेकिन क्या उनकी जिम्मेदारी नहीं थी कि पार्टी को इस योग्य बनाएं कि वह अपना नेतृत्व चुन सके। उन्होंने ऐसा नहीं किया और कर भी नहीं सकते थे। देशभर से पार्टीजनों की करुण पुकार पर आखिर उनकी मां सोनिया गांधी को पुन: पार्टी की बागडोर संभालनी पड़ी। भविष्य बताएगा कि इस घटना ने कांग्रेस और देश का कितना नुकसान किया। युवा होने को व्याकुल 135 साल पुरानी इस पार्टी को फिर बुजुर्गों की साजिश का शिकार होने दिया गया। अच्छा होता कांग्रेसीजन इसको समझ पाते। विशेषकर श्रीमान राहुल गांधी।

(पुराना आलेख)


अनन्यता


अनन्यता भक्ति के साथ गृहस्थ जीवन का भी मूल है। यह एक ऐसा भाव है, जिसकी अपेक्षा देवी-देवताओं के साथ आम लोग भी रखते हैं। हर कोई चाहता है कि सामने वाला उससे अनन्य भाव रखे। यानी उसके लिए मान-सम्मान, विश्वास और समर्पण का जो भाव हो, वह किसी अन्य के लिए न हो। पत्नी चाहती है कि पति के जीवन में उसका स्थान कोई और न ले। छोटा बालक चाहता है कि मां अपनी सारी ममता उस पर उड़ेल दे। वह सिर्फ उसके बारे में सोचे, उसकी चिंता करे और हमेशा उसके लिए उपलब्ध रहे। बाद में यही मां चाहती है कि संतान उसकी होकर रहे। यानी जो मान-सम्मान और अहमियत उसके लिए है, वह किसी दूसरे के लिए न हो। यही मित्र-सखा भी चाहते हैं कि उनके प्रति अनन्य भाव रखा जाए। ऑफिस में बॉस उम्मीद करते हैं कि सहयोगी उनके प्रति सम्मान और भरोसे का जो भाव रखते हैं, वह किसी अन्य को नहीं मिले।
दरअसल किसी के प्रति अनन्य भाव रखना और उसके गले पड़ जाना या आसक्त होने में अंतर है। हम प्रभु श्रीराम के प्रति अनन्य भाव रखते हैं तो जो स्थान, मान-सम्मान और समर्पण भाव उनके लिए है, वह किसी अन्य के लिए नहीं हो सकता। जो भी अच्छा होता है, उसका श्रेय उन्हें देते हैं, लेकिन अगर कुछ गलत हो जाता है, उसके लिए उन्हें दोषी नहीं ठहराते। बल्कि यह मान लेते हैं कि इसमें भी उन्होंने कोई भलाई देखी होगी। भरोसे का अत्यंत उच्च भाव।
अनन्यता बहुत दुर्लभ है और मुश्किल से, उच्च आध्यात्मिक भावना से प्राप्त होती है। यही कारण है कि कई साधु-महात्मा इसे भक्ति के लिए प्राथमिक और अनिवार्य भाव बताते हैं। वहीं आसक्ति एक बंधन है, जो हमारी उन्नति में बाधक होती है। इससे किसी का भला नहीं होता। न तो आसक्ति भाव रखने वाले का, न ही उसका जिसके प्रति रखा गया हो।
-बीरेश्वर तिवारी


(17 अप्रैल, 2020, संपादकीय पेज, दैनिक जागरण)