Sunday, 12 July 2020


अनन्यता


अनन्यता भक्ति के साथ गृहस्थ जीवन का भी मूल है। यह एक ऐसा भाव है, जिसकी अपेक्षा देवी-देवताओं के साथ आम लोग भी रखते हैं। हर कोई चाहता है कि सामने वाला उससे अनन्य भाव रखे। यानी उसके लिए मान-सम्मान, विश्वास और समर्पण का जो भाव हो, वह किसी अन्य के लिए न हो। पत्नी चाहती है कि पति के जीवन में उसका स्थान कोई और न ले। छोटा बालक चाहता है कि मां अपनी सारी ममता उस पर उड़ेल दे। वह सिर्फ उसके बारे में सोचे, उसकी चिंता करे और हमेशा उसके लिए उपलब्ध रहे। बाद में यही मां चाहती है कि संतान उसकी होकर रहे। यानी जो मान-सम्मान और अहमियत उसके लिए है, वह किसी दूसरे के लिए न हो। यही मित्र-सखा भी चाहते हैं कि उनके प्रति अनन्य भाव रखा जाए। ऑफिस में बॉस उम्मीद करते हैं कि सहयोगी उनके प्रति सम्मान और भरोसे का जो भाव रखते हैं, वह किसी अन्य को नहीं मिले।
दरअसल किसी के प्रति अनन्य भाव रखना और उसके गले पड़ जाना या आसक्त होने में अंतर है। हम प्रभु श्रीराम के प्रति अनन्य भाव रखते हैं तो जो स्थान, मान-सम्मान और समर्पण भाव उनके लिए है, वह किसी अन्य के लिए नहीं हो सकता। जो भी अच्छा होता है, उसका श्रेय उन्हें देते हैं, लेकिन अगर कुछ गलत हो जाता है, उसके लिए उन्हें दोषी नहीं ठहराते। बल्कि यह मान लेते हैं कि इसमें भी उन्होंने कोई भलाई देखी होगी। भरोसे का अत्यंत उच्च भाव।
अनन्यता बहुत दुर्लभ है और मुश्किल से, उच्च आध्यात्मिक भावना से प्राप्त होती है। यही कारण है कि कई साधु-महात्मा इसे भक्ति के लिए प्राथमिक और अनिवार्य भाव बताते हैं। वहीं आसक्ति एक बंधन है, जो हमारी उन्नति में बाधक होती है। इससे किसी का भला नहीं होता। न तो आसक्ति भाव रखने वाले का, न ही उसका जिसके प्रति रखा गया हो।
-बीरेश्वर तिवारी


(17 अप्रैल, 2020, संपादकीय पेज, दैनिक जागरण)

No comments:

Post a Comment