रोम-रोम में रमा राम-राम
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श्री रामशरणम् वह परमधाम है, जहां मानसिक, आत्मिक एवं आध्यात्मिक सुख की तलाश पूरी होती है। श्रद्धा, करुणा, पवित्रता व कृतज्ञता के अलौकिक मोती इसे भिन्नता की चमक प्रदान करते हैं। संत स्वामी सत्यानंद जी के पावन संकल्प के साथ 11 अक्टूबर 1960 को पानीपत की ऐतिहासिक भूमि पर इस आध्यात्मिक युग का सूत्रपात हुआ। उन्होंने मानव समाज के हृदय में ईश्वर के प्रति श्रद्धा, विश्वास व भक्ति भावना जागृत करते हुए चरित्र निर्माण की अवधारणा को सशक्त किया। दरअसल 26 अप्रैल 1861 को रावलपिंडी के छोटे से गांव में जन्मे स्वामी सत्यानंद प्रारंभ से ही संत प्रवृत्ति के थे और सिर से माता-पिता का हाथ उठने उनका ध्यान आध्यात्म में लीन हो गया। 19 वर्ष की आयु में वह जैन यति बन गए। लुधियाना में चातुर्मास के दौरान आध्यात्म चिकित्सा पुस्तक ने उनके हृदय में उथल-पुथल मचा दी। 28 दिसंबर 1891 में जैन धर्म से विमुख होकर उन्होंने आर्य समाज के वार्षिकोत्सव में सन्यास दीक्षा ग्रहण की। निरंतर 25 वर्षों तक उन्होंने वेद मनीषी के रूप में प्रचार किया। स्वामी सत्यानंद जी ने ओंकार उपासना, सत्य उपदेशमाला, आर्य सामाजिक धर्म, संध्या योग, ईश्वर दर्शन, दयानंद वचनामृत तथा श्री दयानंद प्रकाश जैसे ग्रंथों की रचना की। तत्पश्चात भी उनकी आध्यात्मिक पिपासा शांत नहीं हुई। उन्हें एकांतवास की प्रेरणा हुई और वह डलहौजी चले गए। एक माह की अनवरत साधना के पश्चात उन्हें व्यास पूर्णिमा के दिन राम शब्द अनुभूत हुआ। उन्होंने राम-नाम सिद्धि मंत्र जन-जन तक पहुंचाने का संकल्प लिया। पानीपत प्रस्फुटित हुआ आध्यात्म का यह अंकुर अब बरगद बन गया है। इसकी शाखाएं हरियाणा के अलावा पंजाब, उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, जम्मू एवं कश्मीर, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और विदेशों तक भी पहुंच गई हैं। स्वामी सत्यानंद जी की धर्म ध्वजा को परम पूज्य मां शकुंतला जी ने सिखर तक पहुंचाया। वात्सल्य, प्रेम व करूणा की प्रतिमूर्ति मां अनन्य भक्तों के लिए आध्यात्मिक प्रेरक बनीं। 1966 में उन्होंने राम नाम की पताका मां दर्शी के हाथों में सौंप दी। त्याग और तप की कंटीली राहों पर आगे बढ़ते हुए वह समाज को राम नाम की धुन से जोडऩे में तल्लीन हैं। उनके ममतामयी सानिध्य में असंख्य साधक राम नाम के जप से सांसारिक अवसादों से मुक्ति पा रहे हैं।

