Saturday, 24 October 2015

रोम-रोम में रमा राम-राम

रोम-रोम में रमा राम-राम



 रोम-रोम में राम-राम रमा... और राम नाम का जप ही सबसे बड़ा संकल्प। आध्यात्म के इसी मंत्र को आत्मसात करते हुए श्री रामशरणम् ने मनुष्य की दिव्य शक्ति और चेतना जागृत करने के लिए सात्विक परिपाटी शुरू की है। संत स्वामी सत्यानंद जी महाराज द्वारा प्रारंभ किए गए आध्यात्मिक मिशन की भक्ति यात्रा पांच दशकों से अनवरत जारी है। आत्म-ज्ञान, भक्ति व निष्काम कर्म की इस त्रिवेणी धारा में गोते लगा कर असंख्य लोग तनाव से मुक्त होकर शांति की राह पकड़ चुके हैं।
श्री रामशरणम् वह परमधाम है, जहां मानसिक, आत्मिक एवं आध्यात्मिक सुख की तलाश पूरी होती है। श्रद्धा, करुणा, पवित्रता व कृतज्ञता के अलौकिक मोती इसे भिन्नता की चमक प्रदान करते हैं। संत स्वामी सत्यानंद जी के पावन संकल्प के साथ 11 अक्टूबर 1960 को पानीपत की ऐतिहासिक भूमि पर इस आध्यात्मिक युग का सूत्रपात हुआ। उन्होंने मानव समाज के हृदय में ईश्वर के प्रति श्रद्धा, विश्वास व भक्ति भावना जागृत करते हुए चरित्र निर्माण की अवधारणा को सशक्त किया। दरअसल 26 अप्रैल 1861 को रावलपिंडी के छोटे से गांव में जन्मे स्वामी सत्यानंद प्रारंभ से ही संत प्रवृत्ति के थे और सिर से माता-पिता का हाथ उठने उनका ध्यान आध्यात्म में लीन हो गया। 19 वर्ष की आयु में वह जैन यति बन गए। लुधियाना में चातुर्मास के दौरान आध्यात्म चिकित्सा पुस्तक ने उनके हृदय में उथल-पुथल मचा दी। 28 दिसंबर 1891 में जैन धर्म से विमुख होकर उन्होंने आर्य समाज के वार्षिकोत्सव में सन्यास दीक्षा ग्रहण की। निरंतर 25 वर्षों तक उन्होंने वेद मनीषी के रूप में प्रचार किया। स्वामी सत्यानंद जी ने ओंकार उपासना, सत्य उपदेशमाला, आर्य सामाजिक धर्म, संध्या योग, ईश्वर दर्शन, दयानंद वचनामृत तथा श्री दयानंद प्रकाश जैसे ग्रंथों की रचना की। तत्पश्चात भी उनकी आध्यात्मिक पिपासा शांत नहीं हुई। उन्हें एकांतवास की प्रेरणा हुई और वह डलहौजी चले गए। एक माह की अनवरत साधना के पश्चात उन्हें व्यास पूर्णिमा के दिन राम शब्द अनुभूत हुआ। उन्होंने राम-नाम सिद्धि मंत्र जन-जन तक पहुंचाने का संकल्प लिया। पानीपत प्रस्फुटित हुआ आध्यात्म का यह अंकुर अब बरगद बन गया है। इसकी शाखाएं हरियाणा के अलावा पंजाब, उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, जम्मू एवं कश्मीर, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और विदेशों तक भी पहुंच गई हैं। स्वामी सत्यानंद जी की धर्म ध्वजा को परम पूज्य मां शकुंतला जी ने सिखर तक पहुंचाया। वात्सल्य, प्रेम व करूणा की प्रतिमूर्ति मां अनन्य भक्तों के लिए आध्यात्मिक प्रेरक बनीं। 1966 में उन्होंने राम नाम की पताका मां दर्शी के हाथों में सौंप दी। त्याग और तप की कंटीली राहों पर आगे बढ़ते हुए वह समाज को राम नाम की धुन से जोडऩे में तल्लीन हैं। उनके ममतामयी सानिध्य में असंख्य साधक राम नाम के जप से सांसारिक अवसादों से मुक्ति पा रहे हैं।


Sunday, 4 October 2015

अब तो जागें


अब तो जागें

आवारा कुत्तों द्वारा मासूमों की जान लेने की हालिया घटनाएं डराने वाली हैं। कुरुक्षेत्र के पिहोवा में दादी के साथ जा रही छह वर्षीय बच्ची को आवारा कुत्तों के झुंड ने नोच खाया तो करनाल के निसिंग में घर के बाहर बारह वर्षीय बालक को कुत्तों ने अपना शिकार बना लिया। बच्चे का साथी सौभाग्यशाली रहा जो किसी तरह इनके हमले में बच निकला। आबादी वाले क्षेत्र में कुत्तों का यह हिंसक हमला चिंता बढ़ाने वाला है। लावारिस पशुओं और जानवरों के खिलाफ कार्रवाई में प्रशासन हमेशा से लापरवाही बरतता रहा है। किसी घटना के होने पर अगर जागा भी तो कुछ दिन बाद फिर लंबी निद्रा में चला गया। कहने के लिए तो प्रदेश सरकार हिसार में एंटी रैबिज अभियान चला रही है, लेकिन यह भी उसकी कम और केंद्र सरकार की परियोजना ज्यादा है। नगर निगम और शहरी निकाय विभाग द्वारा कुत्तों के खिलाफ चलाए जाने वाला अभियान भी अमूमन औपचारिकता बनकर रह जाते हैं। अभियान भी तब चलाए जाते हैं जब लोग सड़क पर उतर आएं। अन्यथा ऐसा नहीं होता कि न्यायालय को इस कार्य के लिए निर्देश देना पड़े। ङ्क्षहसक कुत्तों से लोगों को बचाने के लिए टीकाकरण और बंध्याकरण अभियान चलाया जाता है। टीकाकरण से जहां उनके काटने का प्रभाव कम होता है, वहीं बंध्याकरण से उनकी आक्रामकता कम होती है और वंश वृद्धि पर भी रोक लगती है। इस मामले में स्वास्थ्य विभाग की तैयारी भी कम हैरान करने वाली नहीं है। ज्यादातर सरकारी अस्पतालों में एंटी रैबिज दवाइयां नहीं मिलती। फतेहाबाद जैसे जिले के लोगों को पीजीआइ की राह देखनी पड़ती है। सरकार दावे तो बहुत करती है, लेकिन जमीनी स्तर पर असर नहीं छोड़ पाती। आवारा कुत्तों के खिलाफ अभियान में भी उसकी यही हालत है। कुरुक्षेत्र और करनाल की घटनाओं के खिलाफ जिस तरह लोग सड़कों पर उतर रहे हैं, उससे समस्या की गंभीरता को समझना चाहिए। लोग सीएम विंडो पर भी इसके लिए गुहार लगा रहे हैं। दरअसल, इधर-उधर फैले मृत पशुओं का मांस खाकर ज्यादातर कुत्ते आदमखोर हो जाते हैं। पहले तो वे मवेशियों को अपना शिकार बनाते हैं और फिर मासूम बच्चों और बुजुर्गों को। ऐसे में ग्र्राम पंचायतों की भी जिम्मेदारी बनती है कि मृत पशुओं का मांस खुले में फेंकने से रोकने में आगे आएं। सरकार को भी चाहिए कि कोई सख्त कदम उठाए। जिस तरह नीलगायों को मारने का परमिट जारी किया गया, उसी तरह इस मामले में भी कोई निर्णायक फैसला ले।
(30.09.2015)

राहगीरी की राह

राहगीरी की राह

करनाल में राहगीरी का हिस्सा बने मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने कहा था कि यह बहुत ही अच्छा प्रयास है और इसे जिले से बाहर भी ले जाना चाहिए। अब अगर सरकार ने इसका आयोजन पूरे प्रदेश में करने का फैसला किया है तो स्वाभाविक ही है। वैसे भी राहगीरी ने अभी तक सुखद परिणाम दिए हैं। खासकर प्रदेश का गेटवे माने जाने वाले साइबर सिटी गुडग़ांव में तो इसने अपार लोकप्रियता हासिल की। कार फ्री डे को मिली कामयाबी की राह भी राहगीरी से ही निकली। यह एक तरह से वीकेंड आयोजन है जो भारतीय समाज के लिए नया नहीं है। सदियों पहले जब शहरीकरण नहीं था तो साप्ताहिक बाजार लगते थे। बदली आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों में साप्ताहिक बाजार प्रासंगिक नहीं रहे, लिहाजा राहगीरी जैसे आयोजन जरूरत बन गए हैं। प्रदेश में इसकी शुरुआत गुडग़ांव से हुई थी। इसके तहत सप्ताह में एक दिन रविवार को सुबह छह से आठ बजे तक शहर के लोग एक जगह जमा होते हैं। खेल-कूद और विभिन्न तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। लोग एक-दूसरे से मिलते हैं और हफ्तेभर की थकान दूर कर नई ऊर्जा से खुद को सराबोर कर लेते हैं। वाकई सकारात्मक सोच के साथ शुरू इस प्रयोग ने लोगों में सकारात्मक सोच पैदा की। हालांकि दिल्ली से सटे फरीदाबाद और चंडीगढ़ से सटे पंचकूला में भी इसे शुरू किया गया, लेकिन वह सफलता नहीं मिली जो बाद में इसे अपनाए करनाल ने हासिल कर ली। गुडग़ांव में एक खास तबके तक सीमित राहगीरी ने सीएम सिटी में आमजन को जोड़ा है। खुद मुख्यमंत्री की भागीदारी से इसकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है। अगर सरकार की योजना सिरे चढ़ी तो इसका अगला पड़ाव अंबाला होगा। संभव है रोहतक, हिसार, पानीपत और सिरसा के साथ सोनीपत में भी इसे शुरू करने का पुलिस-प्रशासन पर दबाव बने। लोगों को एक-दूसरे से जोडऩे के लिए इस तरह के आयोजन की तारीफ तो होनी ही चाहिए। मगर, यह भी देखना होगा कि यह मकसद से भटक न जाए। कहीं ऐसा न हो कि यह एक खास वर्ग का आयोजन बनकर रह जाए और बहुत बड़ा तबका स्वयं को अलग-थलग महसूस करने लगे। पुलिस के सामने सबसे बड़ी चुनौती इसमें असामाजिक तत्वों की घुसपैठ रोकने की होगी। करनाल में जिस तरह  आयोजन स्थल बदलना पड़ा उससे यह बात उजागर भी होती है। फिलहाल तो राहगीरी की सफलता की कामना करें।
(०५ अक्टूबर, २०१५)

धरतीपुत्र का दर्द

धरतीपुत्र का दर्द

कपास की फसल बर्बाद होने के कारण आर्थिक संकट में फंसे एक युवा किसान का आत्महत्या करना झकझोर देने वाला है। कुछ माह पहले बेमौसमी बारिश और तूफान के कारण गेहूं की फसल को भारी नुकसान पहुंचा था। उस समय भी बड़ी संख्या में किसानों को आत्महत्या का रास्ता चुनना पड़ा था। राज्य ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर भी चिंता जताई गई। सरकार ने भरोसा भी दिया था कि वह किसानों का दर्द समझती है और उन्हें इस नुकसान से बाहर निकालेगी। अब कपास की फसल को हुए नुकसान ने किसानों की चिंता बढ़ा दी है। हिसार, सिरसा, फतेहाबाद, भिवानी समेत कई जिलों में कपास की खेती होती है। विभिन्न कारणों से इस बार कपास का उत्पादन बेहद कम होने के आसार हैैं। सफेद मक्खी ने इसे बहुत नुकसान पहुंचाया है। कृषि विभाग के अधिकारी भी मानते हैं कि सफेद मक्खी की वजह से 33 प्रतिशत फसल नष्ट हो गई है, लेकिन अगर किसानों की मानें तो 70 से 80 फीसद फसल बर्बाद हो चुकी है। हालांकि राज्य के साथ केंद्र सरकार ने भी सफेद मक्खी से हुए नुकसान की भरपाई के लिए कुछ कदम उठाए हैं, लेकिन यह प्रयास नाकाफी है। न्यूनतम समर्थन मूल्य भी संतोषजनक नहीं है। राज्य सरकार ने मार्केट फीस कम करने जैसी जो घोषणाएं की हैं, वह किसानों के लिए कम, व्यापारियों के लिए ज्यादा हैं। सबसे बड़ी समस्या खेती में बढ़ी लागत और उसके अनुरूप कीमत नहीं मिलना है। धान की कम कीमत मिलने और खरीद न होने से परेशान दो किसानों ने बीते दिनों करनाल में जान देने की कोशिश की थी। गनीमत रही कि उन्हें बचा लिया गया। निश्चित रूप से आत्महत्या किसी समस्या का समाधान नहीं है। धरती-पुत्र तो वैसे भी बहुत हिम्मत वाले होते हैं। छोटे-मोटे झटके उन्हें विचलित नहीं कर सकते, लेकिन बदली परिस्थितियों ने उन्हें खोखला बना दिया है। बीज और खाद की कीमतें बढ़ गई हैं। बिजली-पानी भी सस्ता नहीं है। सबसे बड़ी समस्या बैंक और साहूकारों का कर्ज है। सिरसा के युवा किसान विनोद कुमार भी तीन बैंकों के साढ़े सात लाख रुपये के कर्ज से दबा था। फसलें लगातार बर्बाद हो रही थीं। इस बार उम्मीद थी कि कपास की फसल आर्थिक संकट से निकाल लेगी, लेकिन निराशा हाथ लगी। सरकार चाहे जो भी दावा करे, लेकिन यह कड़वी सच्चाई है कि किसानों की पीड़ा को समझने में वह नाकाम रही है।

(०४-१०-२०१५)

सफाई का एक साल

सफाई का एक साल

एक साल पहले 2 अक्टूबर को पूरे देश की तरह हरियाणा में भी सफाई का विशेष अभियान शुरू हुआ। प्रदेश सरकार की विशेष दिलचस्पी के कारण साफ-सफाई के अभियान ने जल्द ही आंदोलन का रूप ले लिया। अधिकारियों की तो जिम्मेदारी तय थी, लिहाजा उन्हें कुछ न कुछ तो करना ही था, लेकिन आम जनमानस भी जिस तरह जाग गया था, वह अद्भुत था। स्कूल-कॉलेजों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। शिविर लगाकर विद्यार्थियों को सफाई का महत्व बताया गया, इसे संस्कार में लाने की कोशिश हुई। विभिन्न सामाजिक संगठनों ने इस पहल को न केवल सहर्ष स्वीकार किया, बल्कि बढ़-चढ़कर भागीदारी निभाई। देखते ही देखते पार्कों, सड़कों व अन्य सार्वजनिक जगहों पर वर्षों से लगे कूड़े के ढेर साफ हो गए। गुडग़ांव, पंचकूला, करनाल और हिसार जैसे व्यवस्थित शहर ही नहीं अपितु पानीपत व फरीदाबाद जैसे औद्योगिक और घनी आबादी वाले नगर भी साफ दिखने लगे। मगर, एक साल बाद हम कहां हैं? सीएम सिटी करनाल हो या कोई अन्य शहर, हर जगह एक जैसे हालात हैं। लगता ही नहीं कि एक साल पहले यहां सफाई का महा अभियान चला हो। आज की स्थिति हमें न केवल आईना दिखा रही है, बल्कि तौर-तरीकों पर भी गंभीर सवाल खड़ा कर रही है। दरअसल, जिस तेजी के साथ सफाई कार्य करते दिखना फैशन बन गया था, उससे इसी बात का डर था। माननीय लोग भी सड़कों, बसों, रेलवे स्टेशनों पर झाड़ू लगाते तस्वीर खिंचवाते और आगे बढ़ जाते। दोबारा देखने की जरूरत नहीं समझते कि जहां झाड़ू चलाई थी वहां आज क्या है? सरकार ढीली पड़ी तो उसका प्रशासनिक तंत्र पूरी तरह सो गया। यह देखने की जरूरत नहीं समझी गई कि अभियान चल भी रहा है या नहीं? इसमें कोई संदेह नहीं कि सभी स्कूलों व घरों में शौचालय बनवाने की दिशा में राज्य सरकार ने सक्रियता दिखाई। पंचायत चुनाव लडऩे के लिए शौचालय की शर्त जोड़ी गई। इसके बावजूद दस फीसद बाजारों में ही शौचालय की व्यवस्था की जा सकी है, जो चिंताजनक है। इस सवाल का भी कोई संतोषजनक जवाब नहीं है कि घरों से निकलने वाले कूड़े के निस्तारण के लिए क्या किया गया? सरकार की स्थिति यह है कि कचरा उठाने और उसके निस्तारण की जिम्मेदारी निजी क्षेत्र को देने का मन बना रही है। यह दुखद ही है कि एक साल में भी हम स्वच्छता को लेकर ठीक से जाग भी नहीं पाए।
(०३-१०-२०१५)

किसानों की चिंता

किसानों की चिंता

जब धान की खरीद का कार्य अपने चरम पर हो, इससे जुड़े लोगों व संस्थाओं का रूठना-नाराज होना कतई समझदारी नहीं कही जा सकती है। यह राहत की बात है कि कई दिनों से चली आ रही राइस मिल मालिकों की हड़ताल खत्म हो गई जिससे धान खरीद का कार्य सुचारू रूप से चलने की उम्मीद जगी है। अच्छा तो यह होता कि हड़ताल की नौबत ही नहीं आती और यह जिम्मेदारी भी सरकार की ही थी। राइस मिल मालिक अर्से से होल्डिंग चार्ज, डैमेज कट और वर्ष 2011 में सी-फार्म टैक्स के संबंध में अपनी आपत्तियां जता रहे थे। निश्चित रूप से कुछ मांगों को मानना सरकार के लिए भी आसान नहीं था, लेकिन यह भी नहीं लगना चाहिए था कि वह हठ पाले हुए है। जिस तरह अब राइस मिल मालिकों की मांगों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जा रहा है, वह और पहले भी हो सकता था। केंद्र से अनुमति लेकर समय से पहले 24 सितंबर को ही धान की सरकारी खरीद शुरू कराने का क्या पूरा लाभ उठाया जा सका? हफ्तेभर बाद भी सिर्फ खरीद न होने की शिकायत को लेकर जगह-जगह प्रदर्शन हो रहे हैं। अधिकारियों का कहना है कि तैयारी पूरी है और धान अभी मंडी में नहीं आ रहा, जबकि किसानों का कहना है कि कोई खरीदने वाला नहीं है। सरकारी खरीद एजेंसियां तो सुस्त थीं ही, राइस मिल मालिकों की हड़ताल बड़ा प्रभाव डाल रही थी। प्रदेश में करीब 900 राइस मिलें हैं जिनमें 800 के आसपास सप्ताह भर से हड़ताल पर थीं। किसानों की चिंता सिर्फ खरीद में बाधा की नहीं है। धान का उचित मूल्य नहीं मिलना उनके लिए परेशानी का सबसे बड़ा कारण है। किसानों का कहना है कि करीब एक एकड़ धान की फसल तैयार करने में 15 से 17 हजार रुपये तक की लागत आती है। यानी एक क्विंटल धान पर लगभग 2 हजार रुपये, जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य 1450 रुपये है। हालात ऐसे पैदा कर दिए गए हैं कि किसानों को औने-पौने दामों पर फसल बेचनी पड़ रही है। कड़े मापदंड का फायदा व्यापारी उठा रहे हैं। जब तक सरकार इनमें रियायत देगी, कम कीमतों पर वे इसे खरीद लेंगे। यह अच्छी बात है कि सरकार इस बार पीबी 1509 की खरीद करा रही है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। बड़ा सवाल यह है कि तमाम चुनौतियों से लड़कर किसान फसल उपजाता है, लेकिन लाभ तो दूर लागत निकलनी मुश्किल हो जाती है। फिर वह क्या करे?

(०२.१०.२०१५)

बोर्ड की परीक्षा

बोर्ड की परीक्षा

सेमेस्टर परीक्षा के पहले ही दिन जिस तरह खुलकर नकल हुई उससे हरियाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड के दावों की कलई खुल गई है। पहले ही दिन प्रदेशभर में 495 विद्यार्थी अवांछित सामग्र्री का इस्तेमाल करते पकड़े गए और 69 केंद्रों की परीक्षा रद करनी पड़ी। हालांकि विभिन्न केंद्रों से आ रही खबरों को देखते हुए यह संख्या भी कम लगती है। जिस तरह पुलिसकर्मियों के सामने बाहरी लोग अपने सगे-संबंधियों को नकल कराते देखे गए, उससे नहीं लगता कि नकल करने या कराने वालों के मन में कोई खौफ रहा हो। ग्र्रामीण क्षेत्र में ही नहीं, शहर में बनाए गए परीक्षा केंद्रों पर नकल के लिए मोबाइल फोन और दूसरे साधनों का जमकर दुरुपयोग हुआ। बोर्ड के उडऩदस्ते बेशक दौड़ लगाते रहे, लेकिन यह कितना कारगर रहा, कहना मुश्किल है। दरअसल, इस हालात के लिए स्वयं बोर्ड और सरकार ही जिम्मेदार है। प्रथम सेमेस्टर परीक्षाओं की तैयारी हो चुकी थी, लेकिन पंचायत चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद इसे टाल दिया गया। ऐसे संकेत मिल रहे थे कि इस बार यह परीक्षा कराई ही न जाए। इससे बोर्ड की तैयारी तो शिथिल पड़ ही गई, विद्यार्थी भी सुस्त हो गए। अब जब पंचायत चुनाव की अधिसूचना रद करनी पड़ी तो फिर परीक्षा की चिंता हुई। चूंकि पंचायत चुनाव का होना, बहुत हद तक सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर निर्भर है, इसलिए बोर्ड परीक्षा को निपटाना जरूरी था। आने वाले त्योहारों को देखते हुए इसे आगे नहीं बढ़ाया जा सकता था। लिहाजा आधी-अधूरी तैयारी के बावजूद पुरानी तिथि पर ही परीक्षा कराने का निर्णय ले लिया गया। चिंता की बात यह है कि यह सब करते हुए नौ लाख बच्चों के भविष्य की चिंता नहीं की गई। जिस अनमने भाव और जल्दबाजी में परीक्षा की घोषणा की गई, उसमें सबकुछ सही चलने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? तैयारी के लिए जब महज चार दिन मिल रहे हों, तो परीक्षा में उनका बैठना ही कम नहीं है। बोर्ड का यह दावा भी गले नहीं उतर रहा कि तैयारी पूरी है। परीक्षा केंद्रों पर अध्यापकों की ड्यूटी लगाने में ही गड़बड़ी सामने आ गई। कहीं का प्रश्नपत्र कहीं और भेज दिया गया। परीक्षा की घोषणा से पूर्व बोर्ड अधिकारी भी मान रहे थे कि सफलता पूर्वक परीक्षा कराना संभव नहीं है। शिक्षा व्यवस्था में सुधार का दावा करने वालों से यह सवाल तो बनता ही है कि हजारों के भविष्य से खिलवाड़ क्यों किया गया?
(०१.१०.२०१५)