धरतीपुत्र का दर्द
कपास की फसल बर्बाद होने के कारण आर्थिक संकट में फंसे एक युवा किसान का आत्महत्या करना झकझोर देने वाला है। कुछ माह पहले बेमौसमी बारिश और तूफान के कारण गेहूं की फसल को भारी नुकसान पहुंचा था। उस समय भी बड़ी संख्या में किसानों को आत्महत्या का रास्ता चुनना पड़ा था। राज्य ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर भी चिंता जताई गई। सरकार ने भरोसा भी दिया था कि वह किसानों का दर्द समझती है और उन्हें इस नुकसान से बाहर निकालेगी। अब कपास की फसल को हुए नुकसान ने किसानों की चिंता बढ़ा दी है। हिसार, सिरसा, फतेहाबाद, भिवानी समेत कई जिलों में कपास की खेती होती है। विभिन्न कारणों से इस बार कपास का उत्पादन बेहद कम होने के आसार हैैं। सफेद मक्खी ने इसे बहुत नुकसान पहुंचाया है। कृषि विभाग के अधिकारी भी मानते हैं कि सफेद मक्खी की वजह से 33 प्रतिशत फसल नष्ट हो गई है, लेकिन अगर किसानों की मानें तो 70 से 80 फीसद फसल बर्बाद हो चुकी है। हालांकि राज्य के साथ केंद्र सरकार ने भी सफेद मक्खी से हुए नुकसान की भरपाई के लिए कुछ कदम उठाए हैं, लेकिन यह प्रयास नाकाफी है। न्यूनतम समर्थन मूल्य भी संतोषजनक नहीं है। राज्य सरकार ने मार्केट फीस कम करने जैसी जो घोषणाएं की हैं, वह किसानों के लिए कम, व्यापारियों के लिए ज्यादा हैं। सबसे बड़ी समस्या खेती में बढ़ी लागत और उसके अनुरूप कीमत नहीं मिलना है। धान की कम कीमत मिलने और खरीद न होने से परेशान दो किसानों ने बीते दिनों करनाल में जान देने की कोशिश की थी। गनीमत रही कि उन्हें बचा लिया गया। निश्चित रूप से आत्महत्या किसी समस्या का समाधान नहीं है। धरती-पुत्र तो वैसे भी बहुत हिम्मत वाले होते हैं। छोटे-मोटे झटके उन्हें विचलित नहीं कर सकते, लेकिन बदली परिस्थितियों ने उन्हें खोखला बना दिया है। बीज और खाद की कीमतें बढ़ गई हैं। बिजली-पानी भी सस्ता नहीं है। सबसे बड़ी समस्या बैंक और साहूकारों का कर्ज है। सिरसा के युवा किसान विनोद कुमार भी तीन बैंकों के साढ़े सात लाख रुपये के कर्ज से दबा था। फसलें लगातार बर्बाद हो रही थीं। इस बार उम्मीद थी कि कपास की फसल आर्थिक संकट से निकाल लेगी, लेकिन निराशा हाथ लगी। सरकार चाहे जो भी दावा करे, लेकिन यह कड़वी सच्चाई है कि किसानों की पीड़ा को समझने में वह नाकाम रही है।(०४-१०-२०१५)
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