Monday, 28 September 2015

गरीब बच्चों की पढ़ाई की चिंता

गरीब बच्चों की पढ़ाई की चिंता


आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के मेधावी बच्चों को निजी स्कूलों में शिक्षा दिलाने के लिए प्रदेश सरकार का नया कदम स्वागत योग्य है। निजी स्कूलों की सबसे बड़ी मांग भी यही थी कि गरीब बच्चों की शिक्षा पर आने वाले खर्च का बोझ उन पर न डाला जाए। इस मुद्दे पर सरकार अभी तक स्पष्ट रूप से कुछ नहीं बोल रही थी, जिसकी वजह से बात नहीं बन रही थी और निजी स्कूलों को गरीब बच्चों को दाखिला न देने का मजबूत आधार मिल रहा था। लंबी अदालती कार्यवाही के साथ वे सड़क पर भी लड़ाई लड़ रहे थे। जिले में एक दिन छुïट्टी रखकर विरोध जताने का अंबाला से शुरू निजी स्कूलों का अभियान विभिन्न जिलों से होता हुआ आगे बढ़ रहा था। ऐसे में सरकार का यह कहना कि वह गरीब बच्चों की शिक्षा पर आने वाला पूरा खर्च वहन करेगी, उम्मीद की किरण जगाता है। ऐसा कर उसने एक बहुत बड़ा अवरोध खत्म कर दिया है। निजी स्कूलों में गरीब बच्चों के दाखिले का कोटा बढ़ाकर 25 प्रतिशत करने का प्रस्ताव भी स्वागत योग्य है। शिक्षा नियमावली 134ए के तहत पहले भी यह कोटा 25 प्रतिशत था, जिसे बाद में घटाकर 10 प्रतिशत कर दिया गया। अब सरकार ने फिर इसे बढ़ाकर अपनी गंभीरता का अहसास कराया है। हालांकि यह उम्मीद करना जल्दबाजी होगी कि निजी स्कूल मान जाएंगे। फेडरशन ऑफ प्राइवेट स्कूल महासंघ की राज्य इकाई ने जिस तरह गरीब बच्चों के लिए पहली से आठवीं कक्षा तक 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने के सरकार के फैसले को एकतरफा करार दिया है, उससे पता चलता है कि वे मानने को तैयार नहीं हैं। अड़चन प्रतिपूर्ति पर भी है। सरकार उस राशि की ही प्रतिपूर्ति करेगी जो वह बच्चों से वसूल करती है, जबकि निजी स्कूलों में तय मदों की लंबी फेहरिस्त होती है। ऐसे में उन्हें सरकार का प्रस्ताव स्वीकार होगा, इसमें संदेह है। हरियाणा प्राइवेट स्कूल संघ ने तो कह भी दिया है कि सरकार द्वारा तय प्रतिपूर्ति किसी सूरत में मंजूर नहीं होगी। अनुमानत: प्रदेश में लगभग 4900 प्राइवेट स्कूल हैं और इनमें करीब 28 लाख बच्चे पढ़ते हैं। अगर सरकार इस प्रस्ताव पर मंत्रिमंडल की मुहर लगवा लेती है तो सात लाख बच्चे हर साल निजी स्कूलों में शिक्षा ग्रहण कर सकेंगे। निजी स्कूलों को भी अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का अहसास होना चाहिए। वे समझें शिक्षा का क्षेत्र दूसरे व्यवसायों से अलग है और उसी के अनुसार व्यवहार होना चाहिए। इसी में गरिमा भी है।
(29-09-2015)

कितने पाकिस्तानी हैं हरियाणा के मुख्यमंत्री

कितने पाकिस्तानी हैं हरियाणा के मुख्यमंत्री

हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल को पाकिस्तानी कहना बेहद आपत्तिजनक और अनुचित है। जाट आरक्षण के लिए आंदोलनरत पूर्व सैनिक हवा सिंह सांगवान आखिर कैसे कह सकते हैं कि पाकिस्तान से आए ङ्क्षहदू और पंजाबी पाकिस्तानी मूल के भारतीय नागरिक हैं। इस वक्तव्य की जिस तरह चारों तरफ निंदा हुई है, उससे स्पष्ट है कि यहां के लोग सामाजिक समरसता पर आंच नहीं आने देना चाहते और सांगवान जैसे लोगों के विचारों से इत्तेफाक नहीं रखते। सबसे अच्छी बात है कि अभी तक सभी पक्षों ने पूरा संयम और गंभीरता का परिचय दिया है। सत्तारूढ़ दल ने सधी हुई आपत्ति जताई तो विपक्षी दलों ने भी किसी तरह की उत्तेजना से बचते हुए इसकी कड़ी भत्र्सना की है। विचारधारा को लेकर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन समाज को बांटने के प्रयासों को कोई भी दल कैसे बर्दाश्त कर सकता है? यही कारण था कि सभी नेताओं ने एक स्वर में सांगवान को न केवल कठघरे में खड़ा किया है, बल्कि इससे बाज आने की नसीहत भी दी है। हां, देश के बंटवारे के समय पाकिस्तान से आए लोगों को इस विवाद से गहरा धक्का जरूर लगा है। यह स्वाभाविक भी है। आखिर उन्हें पाकिस्तानी कैसे कहा जा सकता है? अपना सबकुछ छोड़कर यहां आने के बाद जिस तरह उन्होंने नई जिंदगी शुरू की, वह अन्य के लिए प्रतिमान है। उनकी जीवटता, परिश्रम और हौसले के साथ बुद्धिमानी की सभी दाद देते हैं। देश और समाज के विकास में उनका योगदान अतुलनीय है। दरअसल देखा जाए तो सांगवान का बयान जाट आरक्षण पर मौजूदा सरकार के रुख से उपजी खीझ का नतीजा है। सर्वोच्च न्यायालय से आरक्षण की सुविधा रद कर दिए जाने के बाद भी जाट समुदाय को उम्मीद थी कि सत्ता प्रतिष्ठान कोई न कोई रास्ता निकाल लेगा और उनके हित पर आंच नहीं आएगी। ऐसा होता न देख जिस तरह जाट नेताओं द्वारा बार-बार आंदोलन की धमकी और आरक्षण के लिए कुछ भी कर गुजरने का एलान किया जा रहा था, उसमें सरकार ज्यादा दिन चुप नहीं रह सकती थी। यही कारण था कि मुख्यमंत्री को कहना पड़ा कि लाठी से कोई चीज हासिल नहीं की जा सकती। इसमें कुछ भी गलत नहीं था, लेकिन कुछ लोगों ने मान लिया कि उन्हें चुनौती दी जा रही है। चिंतनीय है कि चौतरफा आलोचना से सबक लेने के बजाय अब जाट मुख्यमंत्री का मुद्दा उठाया जा रहा है। बेहतर होगा कि भावनाएं भड़काने के इन प्रयासों के खिलाफ जाट समुदाय ही आगे आए।
(28-09-2015)

Saturday, 26 September 2015

ताकि बदले सूरत


ताकि बदले सूरत

खराब लिंगानुपात के लिए बदनाम हरियाणा में जिस तरह शर्तिया बेटा होने की दवा देने के मामले सामने आ रहे हैं वह न केवल चिंताजनक हैं, बल्कि सरकार के प्रयासों पर भी सवाल उठा रहे हैं। कुछ दिन पहले यमुनानगर जिले में एक पंसारी को पकड़ा गया जो पुत्र होने की दवा बेच रहा था। उसके पास से मिली दवाइयों के बारे में दावा किया गया था कि उनके सेवन से बेटा ही होगा। कैथल में सामने आया मामला कुछ ज्यादा चिंताजनक है। 500 रुपये लेकर दवाइयों की पुडिय़ा देने वाला व्यक्ति आठवीं फेल बताया जा रहा है। यह अच्छी बात है कि भोले-भाले और गलत धारणा के शिकार लोगों को धोखा दे रहा वह व्यक्ति गिरफ्तार कर लिया गया और कई लोग झांसे में आने से बच गए। जब भी स्त्री-पुरुष अनुपात की चर्चा होती है कि हरियाणा की गिनती पिछड़े राज्यों में होती है। देश के 15 सबसे खराब लैंगिक अनुपात वाले जिलों में नौ जिले इस राज्य के हैं। आज भी यहां एक हजार पुरुषों पर स्त्रियों की संख्या 879 है और शादी के लिए युवाओं को दूसरे राज्यों से लड़कियों को लाना पड़ रहा है।
यह विचारणीय सवाल है कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ राष्ट्रीय अभियान शुरू करने वाले इस राज्य में सरकार अपने मकसद में कहां तक कामयाब हो सकी है। जिस राज्य की बेटी कल्पना चावला अपने अंतरिक्ष अभियान के लिए पूरी दुनिया में अमर हो गई हो, जहां की लड़कियां अपने अदम्य साहस और जज्बे से पूरे खेल जगत को सुगंधित कर रही हों, वहां बेटे के प्रति आग्र्रह का नहीं छूटना चिंताजनक है। पुत्र के प्रति अंधी लालसा का ही कारण है कि आयेदिन अस्पतालों में बेटा बदलने के आरोप लगाकर हंगामे हो रहे हैं। पानीपत में एक मासूम तीन महीने बाद भी अस्पताल में है। नर्सें उसकी देखरेख कर रही हैं और जिसे मां बताया जा रहा है वह उसे अपनी संतान मानने को तैयार नहीं। डीएनए परीक्षण कराने में प्रशासन को पसीने छूट रहे हैं। पानीपत की सरजमीं से राष्ट्रीय अभियान शुरू करते समय प्रधानमंत्री को उम्मीद थी कि इससे माहौल बदलेगा। लोग बेटियों को पराया धन मानने की धारणा से बाहर निकलेंगे और पुत्रों से बढ़कर उनकी शिक्षा-दीक्षा पर ध्यान देंगे। मगर, यह उम्मीद फिलहाल साकार होती नहीं दिख रही है। सरकार ही नहीं हर जिम्मेदार नागरिक का कर्तव्य है कि प्रदेश के माथे पर लगे इस कलंक को दूर करने में आगे आए।
(28-09-2015)

Friday, 25 September 2015

देर आयद दुरुस्त आयद


देर आयद दुरुस्त आयद

पूरे प्रदेश को अपने खूनी पंजे में कस रहे डेंगू से निपटने की राज्य सरकार की कोशिश को देर आयद दुरुस्त आयद ही कहा जा सकता है। आखिर सरकार ने इसको लेकर हाई अलर्ट घोषित करने के बाद चिकित्सकों व पैरा मेडिकल स्टॉफ की छुïिट्टयां रद करने का फैसला किया है। छुïट्टी पर गए लोगों को वापस बुलाया जा रहा है और निजी अस्पतालों को निर्देश दिए गए हैं कि वे डेंगू प्रभावित मरीजों का समुचित इलाज करें और इसकी सूचना सरकार को उपलब्ध कराएं। यह अच्छी बात है कि मुख्यालयों में बैठे अधिकारियों को भी क्षेत्र में जाने को कहा गया है। पंचकूला और गुडग़ांव में प्लेटलेट्स निकालने के लिए मशीन लगाने के फैसले की भी तारीफ की जानी चाहिए, लेकिन यह सब करने में लिया गया समय समझ से परे है। इस मामले में सरकार की सुस्ती हैरत में डालने वाली है। आखिर उसे डेंगू के खतरे का अनुमान लगाने में इतना समय कैसे लग गया? राज्य में चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ है। सरकारी अस्पतालों की ओपीडी में हफ्तों से लग रही लंबी कतार किसी से छिपी नहीं है। ये वे लोग हैं जिन्हें डेंगू का खौफ सता रहा है। डेंगू है या नहीं, यह तब पता चलेगा जब जांच होगी और उसके नतीजे आएंगे, लेकिन इससे पहले उन्हें जिन स्थितियों से गुजरना पड़ रहा है, वह कम शर्मनाक नहीं है। सरकारी अस्पताल अव्यवस्था के शिकार हैं। न तो पर्याप्त दवाइयां हैं न ही मरीजों के लिए बिस्तर। पीजीआइ जैसे संस्थान में मरीजों को जिन परिस्थितियों से गुजरना पड़ रहा है, वह कम चिंताजनक नहीं है। दूसरी तरफ, निजी अस्पताल लोगों की मजबूरी का जमकर दोहन कर रहे हैं। बरसात के बाद होने वाले सामान्य बुखार का इलाज भी इस तरह किया जा रहा है, जैसे कोई असाध्य बीमारी हो गई हो। इसका मतलब यह नहीं कि डेंगू का प्रकोप कम है, लेकिन बचाव के तरीके बताने और इलाज की व्यवस्था करने के बजाय भय ज्यादा पैदा किया गया। इन हालात के लिए भी सरकार ही दोषी है। उसने इस बारे में न तो लोगों को जागरूक करने का समुचित प्रयास किया, न ही इलाज के पर्याप्त प्रबंध किए। वह जब जागी तब तक डेढ़ दर्जन से अधिक लोगों की इससे मौत चुकी थी। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आने वाले जिलों के हालात कुछ ज्यादा ही बिगड़ चुके हैं। राज्य के दूसरे इलाकों की स्थिति भी अच्छी नहीं है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार इस बार की गलतियों से सबक लेगी।
(१८-०९-२०१५)

मंथन की जरूरत

मंथन की जरूरत

हरियाणा में पंचायत चुनाव को लेकर जो अजीबोगरीब स्थिति बन गई है, वह कतई अच्छी नहीं है। हां, प्रदेश में सत्तारूढ़ दल के राजनीतिक शुचिता के प्रति आग्र्रह और उसकी नियत पर संदेह नहीं किया जा सकता और इस उद्देश्य से हरियाणा पंचायती राज कानून में संशोधन का फैसला भी उसका उचित ही है। आखिर कौन नहीं चाहेगा कि उसे सक्षम नेतृत्व मिले। यह सक्षमता शिक्षा-दीक्षा, ईमानदारी, कानून के प्रति सम्मान और जिम्मेदार नागरिक के भाव से ही आती है। इसलिए अगर यह अपेक्षा की जाती है कि राजनीतिक नेतृत्व पढ़ा-लिखा हो तो गलत नहीं है। निश्चित रूप से उसे आपराधिक प्रवृत्ति का नहीं होना चाहिए। उसे अपनी वित्तीय और दूसरी जिम्मेदारियों का न केवल अहसास हो, बल्कि वह उसका निर्वहन भी करता हो। मगर, यह कहना कि एक निश्चित शैक्षणिक योग्यता कुशल नेतृत्व के लिए अनिवार्य है, कतई उचित नहीं है। इसलिए नए कानून पर उठ रही आपत्तियों को दरकिनार नहीं किया जा सकता। प्रदेश की मौजूदा सरकार से यही चूक हुई है। बेशक उसने पंचायती राज कानून (संशोधन) पर विधानसभा की मुहर लगवा ली, लेकिन आपत्तियों को दूर करने का अपेक्षित प्रयास नहीं हुआ। यह लोकतंत्र का तकाजा भी है कि सभी पक्षों को सुना जाए, उनकी शंका का समाधान किया जाए और नई राह निकाली जाए। नए कानून लाने में सरकार की जल्दबाजी भी समझ से परे है। बेहतर होता वह इस पर चर्चा कराती, राजनीतिक दलों और अन्य सामाजिक संगठनों से राय लेती। नए बदलाव के लिए जनमानस को तैयार करती। ऐसा कर वह एक स्वस्थ परंपरा की शुरुआत करती। इस मामले में सरकार से रणनीतिक चूक भी हुई है। उसने संभावित अदालती चुनौती से निपटने की पूरी तैयारी नहीं की। अगर ऐसा होता तो सुप्रीम कोर्ट द्वारा पंचायती राज कानून (संशोधन) पर स्थगन आदेश देने के बाद भी वह आमजन को असमंजस की स्थिति से बचा लेती। उसे अदालत के आदेश की प्रति नहीं मिलने जैसी कमजोर दलील नहीं देनी पड़ती। पहले चरण के लिए नामांकन शुरू होने के तीन दिन बाद सभी को इसकी अनुमति देकर भी लोगों के साथ न्याय नहीं किया जा सकता। व्यावहारिक पहलू यह है कि अब वही लोग चुनाव लडऩे में सफल हो सकते हैं, जिनकी पहले से तैयारी हो। नए कानून आने के बाद बड़ी संख्या में लोग निराश होकर बैठ गए थे। इसमें संदेह ही है कि वे नामांकन कर पाएं। प्रशासनिक तैयारी भी ऐसी नहीं लगती कि सभी का नामांकन लिया जा सके। सरकार को मंथन करना चाहिए कि आगे की राह कैसे आसान बनाई जा सकती है।
(१९-०९-२०१५)


सराहनीय पहल

सराहनीय पहल


हरियाणा के सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों की कमी किसी से छिपी नहीं है। सुदूर ग्र्रामीण क्षेत्र में स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र हों या पीजीआइ जैसे संस्थान, हर जगह चिकित्सक न होने की समस्या से लोग जूझ रहे हैं। ऐसे में गृह जिलों में तैनाती की सुविधा देकर सरकार ने इस दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल की है। हालांकि अभी इसके परिणाम की भविष्यवाणी करना कुछ जल्दबाजी होगी, लेकिन यह तो तय है कि सरकार पर उपेक्षा का आरोप लगाने वाले चिकित्सकों में यह भरोसा जगेगा कि उनकी सुनवाई हो रही है। सरकार की अपनी सीमाएं हैं। इसलिए वेतन आदि सुविधाओं में निजी क्षेत्र का मुकाबला करना उसके लिए आसान नहीं है। लेकिन सुरक्षित भविष्य जैसी सुविधाएं देकर वह चिकित्सकों को रोकने का प्रयास करती है, तो गलत नहीं है।
एक अनुमान के अनुसार प्रदेश में पिछले एक साल में 52 डॉक्टर सरकारी नौकरी छोड़ कर निजी अस्पतालों में जा चुके हैं। सबसे गंभीर स्थिति मेवात जैसे इलाकों की है। मेवात भत्ता बंद किए जाने से शहीद हसन खां मेवाती मेडिकल कालेज से 26 डॉक्टरों का पलायन चिंतनीय विषय है। पिछले दो महीने में मेडिकल कालेज छोडऩे वाले इन चिकित्सकों में नौ विशेषज्ञ शामिल हैं। आशंका है कि ऐसे डॉक्टरों की संख्या बढ़ सकती है और अगर ऐसा हुआ तो मेडिकल कालेज की मान्यता पर भी संकट आ सकता है। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि हालात किस कदर गंभीर हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि मौजूदा सरकार ने चिकित्सा सेवाओं में सुधार को प्राथमिकता में रखा है। वह लगातार इस पर कार्य कर रही है कि लोगों को समय पर समुचित और सस्ता इलाज उपलब्ध कराने के लिए क्या किया जाए? अस्पतालों की लचर हो गई व्यवस्था सुधारने से लेकर वहां जरूरी साजो-सामान उपलब्ध कराने के लगातार प्रयास हो रहे हैं। पूरी कोशिश है कि सरकारी अस्पतालों में लोगों को जरूरी इलाज मुहैया कराए जा सकें। प्रदेश के पांच जिलों में दस डायलिसिस मशीनें लगाने की घोषणा भी इसी के तहत है। दवाइयों की आपूर्ति व्यवस्था दुरुस्त करने के साथ ही मानव संसाधन के उचित प्रबंधन के उपाय किए जा रहे हैं। मगर, सबसे जरूरी योग्य और विशेषज्ञ चिकित्सकों को सरकारी अस्पतालों से जोडऩा है। पूर्व की सरकारों ने भी इस दिशा में प्रयास किए थे। अस्पतालों के प्रबंधन का कार्य के लिए अलग कैडर बनाने की योजना पर विचार भी हुआ था। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार चिकित्सकों की इस समस्या से पार पा लेगी।