Friday, 10 October 2014

लोकतंत्र के तमाशबीन


लोकतंत्र के तमाशबीन 

यह कितनी बड़ी विसंगति है कि हरियाणा में साढ़े चार साल तक सरकार उन विधायकों के सहारे चलती रही जो योग्य थे ही नहीं। जिन्होंने गैरकानूनी और अनैतिक ढंग से सरकार का समर्थन दिया या यह कहें कि सरकार बनाने के लिए उनका समर्थन लिया गया। अलोकतांत्रिक तरीके से बनी सरकार पांच साल तक लोकतंत्र के नाम पर अच्छे-बुरे निर्णय लेती रही और सभी तमाशबीन रहे। इनमें वे सभी शामिल थे जिन पर लोकतंत्र को सहेजने और मजूबत करने की जिम्मेदारी है। वह विधायिका, कार्यपालिका और न्यापालिका हो या चौथा स्तंभ मीडिया। सभी अपनी जिम्मेदारी से बचते रहे।

वर्ष 2009 के विधानसभा चुनाव में हरियाणा की किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला था। सबसे बड़ी पार्टी के रूप में कांग्रेस उभरी जरूर थी, लेकिन सरकार बनाने के लिए उसे कुछ विधायकों का साथ चाहिए था। नई नवेली पार्टी हरियाणा जनहित कांग्रेस (भजनलाल) के छह विधायक चुनाव में जीतकर आए थे। इनमें एक पार्टी प्रमुख कुलदीप बिश्नोई ही थे। शेष पांच जिलेराम शर्मा, सतपाल सांगवान, राव नरेंद्र, विनोद भ्याना और धर्मसिंह छोक्कर। रातोंरात ये पांचों विधायक कांग्रेस के साथ हो गए और भूपेंद्र सिंह हुड्डा की अगुवाई वाली सरकार दूसरी बार बन गई। हो-हल्ला मचा, लेकिन न कुछ होना था और न ही हुआ। कुलदीप बिश्नोई ने विधानसभा अध्यक्ष की अदालत में अपील की। यहां वही हुआ जिसकी आशंका थी। जिसकी शिकायत की गई, उसकी पार्टी का सदस्य विधानसभा स्पीकर। न्याय की उम्मीद कैसे की जाती? हां, पैंतरेबाजी खूब हुई। एक साल तक यूं ही गुजर गया। दबाव पड़ने और लोकलाज से स्पीकर हरमोहिंदर सिंह चट्ठा कुछ करते, इससे पहले सरकार ने कैबिनेट में फेरबदल किया और उन्हें मंत्री बनाकर कुलदीप शर्मा को स्पीकर बना दिया। अब पूरी प्रक्रिया नए से शुरू हुई। एक साल यूं ही बीत गया। आखिर जल्द फैसले के लिए कुलदीप बिश्नोई हाईकोर्ट गए तो एकल पीठ ने आदेश दिया कि चार माह में सुनवाई करें। स्पीकर विधायिका के प्रमुख स्तंभ थे, सो यह कैसे पसंद आता। उन्होंने डबल बैंच के समक्ष अपील की और बताया कि एकल पीठ को उन्हें आदेश देने का अधिकार नहीं है। वह फैसले के लिए समय निर्धारित नहीं कर सकती। खैर, डबल बैंच सर्वोच्च अदालत ने इनकी बात समझी और आदेश दिया कि जब तक स्पीकर का फैसला नहीं आता विधायक किसी दल के सदस्य नहीं होंगे और कोई पद ग्रहण नहीं करेंगे। उनके बैठने की व्यवस्था सदन में अलग होगी। स्पीकर इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गए तो सर्वोच्च अदालत ने हाईकोर्ट के आदेशों पर रोक लगा दी और लेकिन साथ ही स्पीकर को तीन माह में निर्णय लेने का आदेश दिया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित समय के बिल्कुल आखिर में स्पीकर ने जो फैसला दिया सभी सन्न रह गए। उन्होंने पांच विधायकों को कांग्रेसी माना। बड़ा अजीब फैसला था, जिस हजकां का उन्होंने कांग्रेस में विलय होना बताया उसके सदस्य को सदन में बैठने की अलग से व्यवस्था थी। यानी हजकां (बीएल) बतौर राजनीतिक दल अस्तित्व में थी, उसका अपना एजेंडा, चुनाव चिह्न था। अब मामला हाईकोर्ट पहुंचा। सुनवाई होते-होते समय निकल गया और 09 अक्टूबर को फैसला आया कि उक्त पांचों विधायक 9 नवंबर 2009 से ही विधायक नहीं माने जाएंगे। उनकी सदस्यता रद मानी जाएगी। हाईकोर्ट ने स्पीकर के रवैये पर भी गंभीर सवाल उठाए, लेकिन लगता नहीं कि इसका कोई असर पड़ेगा। फैसले से प्रभावित ज्यादातर विधायक फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत में जाने की तैयारी में हैं। यह हुआ कानूनी पहलू। अब अगर राजनीतिक पहलू से देखा जाए तो अयोग्य ठहराए गए पांच विधायकों में चार इस बार कांग्रेस से विधानसभा प्रत्याशी है। पांचवें जिलेराम शर्मा को कांग्रेस ने टिकट नहीं दिया, क्योंकि आत्महत्या के लिए मजबूर करने के एक मामले में उन्हें दोषी ठहराया जा चुका है। लिहाजा वे निर्दलीय चुनाव मैदान में हैं। संभव है ये पांचों विधायक चुनाव जीत भी जाएं, लेकिन एक बड़ा सवाल यह कि जिनके फैसले से सरकार बनती-बिगड़ती है क्या उनकी कोई जवाबदेही नहीं है। या व्यापक उद्देश्य वाली सरकार येनकेन प्रकारेण बनाई जाए?
जनता को भी सोचना चाहिए कि ऐसे व्यक्ति को चुनकर सदन में क्यों भेजती है जो खरीदने-बिकने के लिए तैयार हों? अपनी इच्छा को जनइच्छा मान लें और मनमाने निर्णय लें। नैतिकता, लोकतांत्रिक मूल्यों और ईमानदारी जैसी बड़ी-बड़ी बातें करने वाले देश के कर्णधार राजनीतिज्ञों से तो कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। नैतिक मानदंडों पर फंसने पर ये कानून की दुहाई देते हैं।

सवाल यह भी है विधायक न रहते हुए इन्होंने विधानसभा सदस्य होने के जो-जो लाभ उठाए उनका क्या होगा? सत्ता सुख भोगा, सरकारी धन को लुटाया, सरकारी सुख-सुविधाओं का लाभ उठाया, उसका क्या होगा?



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