Wednesday, 1 October 2014

शाबाश सरिता


शाबाश सरिता


भारतीय महिला मुक्केबाज सरिता देवी ने जो किया वाकई सराहनीय है। इंचियोन एशियाई खेलों के सेमीफाइनल मुकाबलों में जजों के फैसले को प्रतिकार कर उन्होंने जता दिया है कि किसी खिलाड़ी के लिए आत्मसम्मान से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता। निसंदेह पदक के लिए वर्षों तैयारी की जाती है, जीवन-मरण का सवाल बना लिया जाता है, लेकिन वह भी आत्मसम्मान से बढ़कर नहीं है। 60 किलोग्राम भार वर्ग के सेमिफाइनल मुकाबलों में पूरा स्टेडियम सरिता देवी को विजेता मान रहा था, लेकिन जजों ने मेजबान देश की खिलाड़ी पार्क को विजेता घोषित कर दिया। फैसला आते ही स्टेडियम में चीटिंग-चीटिंग की हूटिंग होने लगी, लेकिन जजों पर कोई असर नहीं पड़ा और उन्होंने पार्क को विजेता घोषित कर दिया। मगर, सरिता देवी के लिए यह स्वीकार करना मुश्किल था और वे रो पड़ीं। भारतीय दल ने औपचारिक आपत्ति भी जताई, लेकिन जैसा कि इस तरह के मामलों में होता है उसे दरकिनार कर दिया गया। सम्मान समारोह के दौरान सरिता ने पहले तो पदक लेने से इन्कार कर दिया। हालांकि बाद में उन्होंने इसे लिया और प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी को देकर रिंग से बाहर आ गईं।
अंतरराष्ट्रीय मुक्केबाजी संघ ने सरिता के फैसले की निंदनीय करार देते हुए जांच बैठा दी है। हो सकता है उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई भी हो, लेकिन वह पदक लौटने से मिली नैतिक जीत और आत्मिक बल के सामने बहुत तुच्छ है। कई बार खोकर हम ज्यादा जीतते हैं, क्योंकि यह हार में विजय से ज्यादा ऊर्जा देती है।

किवदंती बन चुकी मणिपुर की मुक्केबाज मैरी कॉम को गोल्ड जीतने के लिए देशभर से बधाई मिल रही है, लेकिन उन्होंने भी अपनी जीत का एक बहुत बड़ा अंश सरिता के आंसुओं को समर्पित कर दिया। बकौल मैरी कॉम, सरिता के आंसू देख नहीं पा रही थी। उनके साथ अन्याय हुआ और इसी अन्याय का प्रतीकात्मक बदला लेने के लिए हर हाल में स्वर्ण पदक जीतना चाहती थी।

अगर देखा जाए तो सरिता की हार मैरी कॉम की जीत पर भारी पड़ रही है। इस बहादुर महिला खिलाड़ी ने अनगिनत खिलाड़ियों के लिए आत्मसम्मान की मिसाल पेश की है। बेहतर होगा भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय मुक्केबाजी संघ के साथ लड़ाई में सरिता के साथ मजबूती से खड़ी हो। यह सरिता नहीं भारतीय खेल और उसके जज्बाती खिलाड़ियों की लड़ाई है।






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