जो लड़ा वह जीता
-बीरेश्वर तिवारी
हरियाणा विधानसभा के चुनाव नतीजे भले ही अप्रत्याशित लग रहे हैं, लेकिन इसके संकेत पहले ही मिलने लगे थे। आज अगर भाजपा चार से बढ़कर 47 पचास सीट तक पहुंच रही है तो इसका श्रेय उसके नेतृत्व के युद्ध कौशल और युद्ध प्रियता को दिया जाना चाहिए। पूरा विधानसभा चुनाव भाजपा के इर्द-गिर्द घूमता रहा। दूसरी पार्टियों की रणनीति भी एक तरह से भाजपा ने ही तय की। प्रत्याशी चयन से लेकर चुनाव-प्रचार तक दूसरे दलों की रणनीति काफी हद तक भाजपा से प्रभावित थी। सबसे बड़ी बात यह है कि कुछ माह पूर्व तक भाजपा राज्य में जनाधार हीन पार्टी थी। कैडर का घोर अभाव, संघर्षशील नेताओं व कार्यकर्ताओं की घोर कमी। इससे भी अहम यह कि कोई ऐसा सर्वमान्य जननेता नहीं जिसे पार्टी मुख्यमंत्री के रूप में पेश कर सके। अगर उसके पास वाकई कोई सीएम कंडिडेट होता तो चुनाव पूर्व इसकी घोषणा कर दी जाती। आखिर कांग्रेस बार-बार उसे ललकार रही थी कि चुनाव से पूर्व भावी मुख्यमंत्री तो बताओ? बाहर से आए सभी नेता खुद को मुख्यमंत्री और कम से कम मंत्री पद के दावेदार तो मान ही रहे थे। मगर, यह पार्टी नेतृत्व का कौशल ही था कि प्रत्याशी चयन के जरिये ही उसने सारे झगड़े खत्म कर दिए। वह राव इंद्रजीत हों या चौ. बीरेंद्र सिंह। रामबिलास शर्मा हों यां कैप्टन अभिमन्यु। सीएम पद पर कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं था। रही सही कसर सुषमा स्वराज के तूफानी चुनाव प्रचार ने पूरी कर दी।
भाजपा ने जिस तरह चुनाव प्रचार किया वह दूसरे दलों के लिए सबक है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस छोटे राज्य में ग्यारह रैलियां की। यहां तक कांग्रेस कहने लगी कि प्रधानमंत्री राज्य के मुख्यमंत्री का चुनाव लड़ रहे हैं। मगर, चुनाव भले ही एक छोटे राज्य का हो, लेकिन इसका महत्व बुहत व्यापक है। जीत तो जीत होती है। उसकी आदत बनी रहनी चाहिए। और मोदी ने यही किया। खुद उनके मैदान में उतरने के साथ भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, गृहमंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने तो एक तरह से यहां कैंप ही कर दिया था। लोकसभा चुनाव में प्रचार कार्य से दूर रहे क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू भी कई दिनों तक जनसभाएं, रैलियां और रोड शो किए। ऐसी व्यवस्था की कि चुनाव लड़ रहे रामबिलास शर्मा, अनिल विज, ओपी धनखड़ और दूसरे नेताओं को अपने क्षेत्र के लिए पूरा समय मिल सके। उन्हें दूसरे क्षेत्रों के लिए प्रचार करने की नौबत नहीं आए। पूरा चुनाव प्रचार बेहद सुनियोजित और व्यवस्थित रहा। कहीं कोई गड़बड़ी या अव्यवस्था नहीं दिखी। पार्टी ने एक-एक वोट को सहेजा। आखिर में डेरा सच्चा सौदा के खुले समर्थन ने तो चमत्कार कर दिया। डेरे का यह समर्थन सिर्फ हरियाणा नहीं बल्कि पंजाब में भी असर दिखाएगा।
दूसरी तरह कांग्रेस थी, जिसने पार्टी के बजाय इसे मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा का चुनाव बना दिया। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कई जनसभाएं की, लेकिन कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाए। कहीं से नहीं लगा कि कांग्रेस एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में विधानसभा चुनाव लड़ रही है। न कोई प्रभाव, न रणनीति। ओज शून्य चुनाव प्रचार ने पार्टी को पहले चुनावी दौड़ से बाहर कर दिया था।
इनेलो ने जरूर लड़ाई लड़ी, लेकिन नतीजा उसके पक्ष में नहीं गया। पार्टी सुप्रीमो ओमप्रकाश चौटाला ने कानूनी खतरा मोल लेते हुए प्रदेश के लगभग सभी विधानसभा क्षेत्रों में प्रचार किया। पार्टी का चुनाव प्रचार भी ठीक रहा, लेकिन पूरी तरह माहौल नहीं बन सका। ऐसा लगा जैसे इनेलो जाटों के भरोसे चुनाव लड़ रहा हो। ओमप्रकाश चौटाला के साथ लोगों की सहानुभूति थी, लेकिन वे यह भरोसा नहीं जगा पाए कि सरकार बना लेंगे। आखिर लोग कैसे मान लेते कि तिहाड़ जेल से भी सरकार चल सकती है? यह ऐसा सवाल था जिसका इनेलो के पास कोई जवाब नहीं था। उसने ऐसा कोई नेता नहीं बनाया जो सीएम पद का दावेदार बन सकता हो।
हरियाणा जनहित कांग्रेस तो भाजपा से गठबंधन टूटने के बाद ही चर्चा से बाहर हो गई। हरियाणा जनचेतना पार्टी और दूसरे दलों के साथ गठबंधन सिर्फ मन बहलाने के लिए था। अन्य कोई गिनती में नहीं था।

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