Friday, 3 October 2014

भगवान भरोसे श्रद्धालु



भगवान भरोसे श्रद्धालु


पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में भगदड़ के दौरान बड़ी संख्या में लोगों की मौत ने एक बार फिर देश के सामने कई सवाल खड़ा कर दिया है। जैसा कि बताया जा रहा है दशहरा के अवसर पर लंका दहन देखने गए लोगों में भगदड़ मच गई और करीब चार दर्जन लोग हताहत हो गए। घायलों की संख्या का अंदाजा लगाना मुश्किल है। यह वही गांधी  मैदान है जहां नरेंद्र मोदी के चुनावी भाषण के दौरान कई धमाके हुए थे। यह भाजपा नेताओं की समझदारी ही थी कि उन्होंने धमाकों की भयावहता की भनक लोगों को नहीं लगने दी। अन्यथा उस दिन और बड़ी अनहोनी हो सकती थी।
धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों में बड़ी संख्या में लोगों की मौजूदगी और उनका भगदड़ का शिकार होना जैसे हमारी नियति बन गई हो। लगातार इस तरह की घटनाओं के बावजूद हम चेतने के लिए तैयार नहीं हैं। अन्यथा महाकुंभ जैसे आयोजन में इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर भगदड़ कैसे मच जाती और पूरी दुनिया में हमारी किरकिरी होती। पटना के गांधी मैदाना में भी चारों तरफ चीत्कार मच रही थी और कोई कुछ करने की स्थिति में नहीं था। नागरिक प्रशासन असहाय की मुद्रा में था, जैसे उसे लकवा मार गया हो। दैखा जाए तो भारत में यह स्थायी समस्या है। विपदा की स्थिति में हमारा पूरा तंत्र पंगु हो जाता है। लगता ही नहीं है कि देश की सबसे प्रतिष्ठित परीक्षा उत्तीर्ण करने वालों को प्रशासन संभालने की जिम्मेदारी दी गई है। जिले की कमान उन लोगों के हाथ में होती है जो सबसे प्रतिभावान और योग्य माने जाते हैं। समय-समय पर उन्हें प्रशिक्षण भी दिया जाता है, लेकिन बहुत कम ही लोग है जिन्होंने इसकी सार्थकता साबित की है। सबसे चिंतनीय यह है कि बेशुमार हादसों के बाद भी हम ऐसी व्यवस्था या प्रणाली विकसित नहीं कर सके जो हादसों से निपटने में सक्षम हो। आज हम मंगल अभियान के लिए खुद पर इतरा रहे हैं, नदियों को प्रदूषण मुक्त करने का बीड़ा उठा रहे हैं और पूरे देश को गंदगी से मुक्त करने की इच्छाशक्ति रखते हैं, लेकिन इसका कोई मायने नहीं अगर हम तीज-त्योहारों को काल बनने से न रोक सकें। यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है कि आपदा नियंत्रण के मोर्चे पर हम पूरी तरह नाकाम साबित हुए हैं।
कायदे से तो हादसे की नौबत ही नहीं आनी चाहिए। आखिर गांधी मैदान में लोगों का जुटना अनायास तो नहीं था। सभी को पता था कि दशहरा के अवसर पर बड़ी संख्या में लोग आएंगे, फिर जरूरी इंतजाम क्यों नहीं किए गए? इसके लिए जिम्मेदार कौन है और उसे क्या दंड दिया जाएगा? ये सिर्फ सवाल हैं, जवाब देने के लिए न तो कोई तैयार है, न ही इसकी जरूरत समझी जाती है। अगर इन सवालों का सामना करने का साहस और नैतिकता होती तो ऐसे हादसे होते ही नहीं।
हालत यह है कि मेलों, जलसों, जनसभाओं व रैलियों में आने वाले लोग भी सरकार से कोई उम्मीद नहीं रखते। वे पूरी तरह भगवान के भरोसे आते हैं और अगर कुछ गलत होता है तो भगवान की इच्छा मान संतोष कर जाते हैं। काश ऐसा नहीं होता। जब हम हादसों के लिए जिम्मेदार लोगों की पहचान करेंगे, उनके कारणों को जानने की कोशिश करेंगे, तभी उन कारणों को दूर भी कर सकेंगे। कम से कम भगवान के इन भक्तों को भगवान के भरोसे तो न छोड़ा जाए।























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