Friday, 28 November 2014

रामपाल के कारनामों से बेखबर रही पुलिस




रामपाल के कारनामों से बेखबर रही पुलिस 



सतलोक आश्रम और उसके कर्ताधर्ता रामपाल के बारे में नित नए खुलासे हो रहे हैं, लेकिन नक्सलियों और माओवादियों से तार जुडऩे के संकेत ने वाकई चिंता में डाल दिया है। दरअसल, चिंता का कारण रामपाल से इन संगठनों के संबंध से ज्यादा राज्य में उनकी मौजूदगी है। हालांकि यमुनानगर समेत कुछ जिलों में यदाकदा माओवादियों की उपस्थिति की चर्चा होती रही है, लेकिन इस पर उतनी गंभीरता नहीं दिखाई गई जितनी चाहिए थी। पुलिस और खुफिया तंत्र की इससे बड़ी लापरवाही और क्या हो सकती है कि बार-बार मिल रहे संकेतों की अनदेखी की गई। जहां तक रामपाल से उनके संबंधों का सवाल है तो इसके संकेत पहले से मिल रहे थे, लेकिन उसे समझने में चूक हुई। हाईकोर्ट में पेशी के समय जिस तरह रामपाल समर्थकों ने चंडीगढ़ के रेलवे स्टेशन, बस अड्डों यहां तक कि हाईकोर्ट परिसर में डेरा जमा दिया था, उसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए थी। सुरक्षा एजेंसियों में इतनी समझ की उम्मीद तो की ही जाती है कि वे इन घटनाओं को ठीक से पढ़तीं। रामपाल समर्थकों के तौर-तरीके बिल्कुल वैसे ही थे, जैसे नक्सली और माओवादी अपनाते हैं। रोहतक के करौंथा में हुए संघर्ष को देखें या कुछ माह पहले हिसार कोर्ट में रामपाल की पेशी के दौरान उत्पन्न स्थितियां, एक भीड़ तंत्र ने सुरक्षा व्यवस्था पर हमला बोल दिया था। नए खुलासों से पता चलता है कि रामपाल समर्थक अभी पूरी तरह गुरिल्ला युद्ध के लिए प्रशिक्षित नहीं हो पाए थे। रामपाल और उसके लोग अगर अपनी साजिश में सफल हो गए होते तो सतलोक आश्रम में उत्पन्न स्थिति के दुष्परिणाम की सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। हालांकि राज्य के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी अब इस बात का दावा कर सकते हैं कि रामपाल समर्थकों में नक्सलियों की मौजूदगी और उनके कुत्सित इरादों को देखते हुए बल प्रयोग से बचा गया। पूरा आपरेशन सतलोक आश्रम के भीतर मौजूद लोगों को थका देने की रणनीति पर चला और बड़े नुकसान से बचा जा सका। मगर, इन दावों से पुलिस की नाकामी नहीं छिप सकती। आखिर करौंथा और हिसार की घटनाओं के बाद भी उसने रामपाल और उसके समर्थकों पर निगरानी क्यों नहीं रखी? सतलोक आश्रम में हथियारों का जखीरा क्यों जमा होने दिया? आज जिस तरह से राइफलों के साथ लाठियां और गुलेल जैसे हथियार मिल रहे हैं, साफ है कि यह सब एक दिन में नहीं हुआ।

Sunday, 19 October 2014

जो लड़ा वह जीता



जो लड़ा वह जीता


-बीरेश्वर तिवारी

हरियाणा विधानसभा के चुनाव नतीजे भले ही अप्रत्याशित लग रहे हैं, लेकिन इसके संकेत पहले ही मिलने लगे थे। आज अगर भाजपा चार से बढ़कर 47 पचास सीट तक पहुंच रही है तो इसका श्रेय उसके नेतृत्व के युद्ध कौशल और युद्ध प्रियता को दिया जाना चाहिए। पूरा विधानसभा चुनाव भाजपा के इर्द-गिर्द घूमता रहा। दूसरी पार्टियों की रणनीति भी एक तरह से भाजपा ने ही तय की। प्रत्याशी चयन से लेकर चुनाव-प्रचार तक दूसरे दलों की रणनीति काफी हद तक भाजपा से प्रभावित थी। सबसे बड़ी बात यह है कि कुछ माह पूर्व तक भाजपा राज्य में जनाधार हीन पार्टी थी। कैडर का घोर अभाव, संघर्षशील नेताओं व कार्यकर्ताओं की घोर कमी। इससे भी अहम यह कि कोई ऐसा सर्वमान्य जननेता नहीं जिसे पार्टी मुख्यमंत्री के रूप में पेश कर सके। अगर उसके पास वाकई कोई सीएम कंडिडेट होता तो चुनाव पूर्व इसकी घोषणा कर दी जाती। आखिर कांग्रेस बार-बार उसे ललकार रही थी कि चुनाव से पूर्व भावी मुख्यमंत्री तो बताओ? बाहर से आए सभी नेता खुद को मुख्यमंत्री और कम से कम मंत्री पद के दावेदार तो मान ही रहे थे। मगर, यह पार्टी नेतृत्व का कौशल ही था कि प्रत्याशी चयन के जरिये ही उसने सारे झगड़े खत्म कर दिए। वह राव इंद्रजीत हों या चौ. बीरेंद्र सिंह। रामबिलास शर्मा हों यां कैप्टन अभिमन्यु। सीएम पद पर कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं था। रही सही कसर सुषमा स्वराज के तूफानी चुनाव प्रचार ने पूरी कर दी।
भाजपा ने जिस तरह चुनाव प्रचार किया वह दूसरे दलों के लिए सबक है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस छोटे राज्य में ग्यारह रैलियां की। यहां तक कांग्रेस कहने लगी कि प्रधानमंत्री राज्य के मुख्यमंत्री का चुनाव लड़ रहे हैं। मगर, चुनाव भले ही एक छोटे राज्य का हो, लेकिन इसका महत्व बुहत व्यापक है। जीत तो जीत होती है। उसकी आदत बनी रहनी चाहिए। और मोदी ने यही किया। खुद उनके मैदान में उतरने के साथ भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, गृहमंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने तो एक तरह से यहां कैंप ही कर दिया था। लोकसभा चुनाव में प्रचार कार्य से दूर रहे क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू भी कई दिनों तक जनसभाएं, रैलियां और रोड शो किए। ऐसी व्यवस्था की कि चुनाव लड़ रहे रामबिलास शर्मा, अनिल विज, ओपी धनखड़ और दूसरे नेताओं को अपने क्षेत्र के लिए पूरा समय मिल सके। उन्हें दूसरे क्षेत्रों के लिए प्रचार करने की नौबत नहीं आए। पूरा चुनाव प्रचार बेहद सुनियोजित और व्यवस्थित रहा। कहीं कोई गड़बड़ी या अव्यवस्था नहीं दिखी। पार्टी ने एक-एक वोट को सहेजा। आखिर में डेरा सच्चा सौदा के खुले समर्थन ने तो चमत्कार कर दिया। डेरे का यह समर्थन सिर्फ हरियाणा नहीं बल्कि पंजाब में भी असर दिखाएगा।

दूसरी तरह कांग्रेस थी, जिसने पार्टी के बजाय इसे मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा का चुनाव बना दिया। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कई जनसभाएं की, लेकिन कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाए। कहीं से नहीं लगा कि कांग्रेस एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में विधानसभा चुनाव लड़ रही है। न कोई प्रभाव, न रणनीति। ओज शून्य चुनाव प्रचार ने पार्टी को पहले चुनावी दौड़ से बाहर कर दिया था।

इनेलो ने जरूर लड़ाई लड़ी, लेकिन नतीजा उसके पक्ष में नहीं गया। पार्टी सुप्रीमो ओमप्रकाश चौटाला ने कानूनी खतरा मोल लेते हुए प्रदेश के लगभग सभी विधानसभा क्षेत्रों में प्रचार किया। पार्टी का चुनाव प्रचार भी ठीक रहा, लेकिन पूरी तरह माहौल नहीं बन सका। ऐसा लगा जैसे इनेलो जाटों के भरोसे चुनाव लड़ रहा हो। ओमप्रकाश चौटाला के साथ लोगों की सहानुभूति थी, लेकिन वे यह भरोसा नहीं जगा पाए कि सरकार बना लेंगे। आखिर लोग कैसे मान लेते कि तिहाड़ जेल से भी सरकार चल सकती है? यह ऐसा सवाल  था जिसका इनेलो के पास कोई जवाब नहीं था। उसने ऐसा कोई नेता नहीं बनाया जो सीएम पद का दावेदार बन सकता हो।
हरियाणा जनहित कांग्रेस तो भाजपा से गठबंधन टूटने के बाद ही चर्चा से बाहर हो गई। हरियाणा जनचेतना पार्टी और दूसरे दलों के साथ गठबंधन सिर्फ मन बहलाने के लिए था। अन्य कोई गिनती में नहीं था।



Monday, 13 October 2014

क्या गुल खिलाएगा डेरा सच्चा सौदा के समर्थन का दांव


क्या गुल खिलाएगा डेरा सच्चा सौदा के समर्थन  का दांव

आखिर भाजपा ने विधानसभा चुनाव में अपना आखिरी दांव चल दिया। प्रचार कार्य खत्म होने के कुछ देर पहले डेरा सच्चा सौदा ने भाजपा को खुला समर्थन देकर राज्य की राजनीति में हलचल मचा दी। डेरे का साथ क्या गुल खिलाएगा यह तो चुनाव नतीजे बताएंगे, लेकिन इतना तय है कि इसका कोई साइड इफेक्ट नहीं है। अगर है भी तो बहुत कम। डेरे से पार्टी की नजदीकी से सिख वोटों पर थोड़ा बहुत असर पड़ सकता है, लेकिन उससे ज्यादा लाभ है। अनुमान है कि राज्य की 90 विधानसभा सीटों में 60 पर डेरा सच्चा सौदा का प्रभाव है। इसके अनुयायी बहुत कट्टर हैं और संत का आदेश उनके लिए सर्वोपरि है। समर्थन का तरीका भी अहम है। डेरा मुखी ने खुद घोषणा करने के बजाय ब्लाक स्तर पर नामचर्चा में इसकी घोषणा कराई। एक दिन पहले तीन घंटे की लंबी चर्चा के बाद तय हुआ कि सीधी घोषणा के बजाय ब्लाक स्तर पर नामचर्चा में भाजपा प्रत्याशियों को बुलाया जाए और वहीं समर्थन की घोषणा हो। ताकि डेरा प्रेमी प्रत्याशियों से और जुड़ाव महसूस करें।

जैसा कि बताया जा रहा है भाजपा इसके लिए काफी दिनों से प्रयास कर रही थी। शुरू में खबर आई कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह डेरा मुखी से मुलाकात कर सकते हैं, लेकिन शाह खुलकर नहीं मिले और सारा खेल पर्दे के पीछे चला। राज्य में भाजपा के चुनाव प्रभारी कैलाश विजयर्गीय डेरे में जाकर डेरा मुखी से मुलाकात कर चुके थे। कुछ दिन पहले सुषमा स्वराज ने भी जाकर गुरमीत राम रहीम से आशीर्वाद लिया था। यहां तक कि चुनाव प्रचार के दौरान सिरसा में डेरे के प्रतिनिधियों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की थी। इसके बाद साफ हो गया था कि डेरा भाजपा के साथ आ रहा है। दरअसल, प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत अभियान के कारण डेरे ने सैद्धांतिक जुड़ाव महसूस किया। हरियाणा के नेताओं ने तो यह कहा भी कि मोदी का स्वच्छता अभियान डेरा सच्चा सौदा की नकल है। इस दोस्ती की जरूरत दोनों को थी। कानूनी मामलों में उलझे डेरा प्रमुख को भी राजनीतिक साथ चाहिए था। अगर वह साथ केंद्र में सत्तारूढ़ दल का हो तो भला कौन छोड़ना चाहेगा?

डेरा सच्चा सौदा की राजनीतिक अहमियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पंजाब विधानसभा चुनाव में सभी दल समर्थन के लिए लालायित रहते हैं। हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में भी डेरे का खास प्रभाव है। हरियाणा के नेता भी समर्थन के लिए डेरे में जाकर आशीर्वाद लेते रहे हैं। शिरोमणि अकाली दल के नेता प्रकाश सिंह बादल और उनके पुत्र सुखबीर बादल जिस तरह इनेलो के समर्थन में मैदान संभाले हुए थे, उसमें डेरे के समर्थन से अच्छा कोई राजनीतिक जवाब नहीं हो सकता। अकाली दल की डेरे से दूरी सर्वविदित है। इनेलो के नजदीक जाकर उसने भाजपा को डेरा सच्चा सौदा के साथ दोस्ती से रोकने का नैतिक बल खो दिया है। कांग्रेस के वोटों पर डेरा प्रेमी असर डालेंगे।

























   

Sunday, 12 October 2014

हरियाणा में चुनावी चक्रव्यूह


हरियाणा में चुनावी चक्रव्यूह



हरियाणा में विधानसभा चुनाव पूरी तरह उलझ गया है। कुछ हफ्ते पूर्व तक लग रहा था कि मतदान नजदीक आते-आते परिदृश्य साफ हो जाएगा, लेकिन यह और उलझता गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दस चुनावी रैलियों के बावजूद भाजपा जीत के प्रति पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की तीन और पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी की तीन सभाएं भी कांग्रेस के पक्ष में माहौल नहीं बना सकी हैं। दलबदल मामले में हाईकोर्ट का फैसला पक्ष आने के बावजूद हरियाणा जनहित कांग्रेस कहीं लड़ाई में नहीं दिख रही। निर्दलियों के अपने-अपने दावे हैं, लेकिन उन पर भरोसा कौन करे? 
दो टीवी चैनलों के सर्वे ने दिखाया कि किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल रहा है। भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरेगी, लेकिन इनेलो उससे बहुत दूर नहीं रहेगा। थोड़ा भी ऊंच-नीच हुआ तो स्थिति उलट सकती है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री को कहना पड़ा कि लूली-लंगड़ी सरकार बनाई तो ये लूट ले जाएंगे। नरेंद्र मोदी के शुरुआती तेवर, कांग्रेस व इनेलो पर तीखा हमला आखिरी दिन नहीं दिखा। और वे याचना और अपील की मुद्रा में आ गए। भाजपा ने हरियाणा चुनाव में कोई कसर नहीं छोड़ी। मोदी ने स्वयं चुनाव प्रचार की कमान संभाली। टिकट वितरण में तय मानदंडों का कड़ाई से पालन किया और सबसे अहम मुख्यमंत्री पद के कथित दावेदारों को उनकी औकात बता दी। यह जरूरी भी था, नहीं चुनाव प्रचार में अराजकता की स्थिति पैदा हो जाती। इसका नुकसान यह जरूर है कि राव इंद्रजीत, चौ. बीरेंद्र सिंह, प्रदेश अध्यक्ष रामबिलास शर्मा, अनिल विज जैसे नेता अपने क्षेत्रों में सिमट कर रह गए हैं। पार्टी ने कैप्टन अभिमन्यु को जरूर दूसरे क्षेत्रों में प्रचार की जिम्मेदारी दी है, तो इसलिए कि जाट नेताओं को जोड़ा जा सके। मगर, सबसे बड़ा फायदा यह है कि चुनाव प्रचार बहुत ही व्यवस्थित ढंग से संचालित हो रहा है। केंद्रीय और दूसरे राज्यों से नेताओं की एक बड़ी फौज पार्टी ने हरियाणा में उतार दी है। लोकसभा चुनाव में प्रचार से दूर रहे क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू भी दो-तीन दिन तक यहां प्रचार करते दिखे। रोड शो किया और आम लोगों से मिले। गृह मंत्री राजनाथ सिह डेढ़ दर्जन से ज्यादा सभाएं कर चुके हैं तो विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने एक तरह से यहां डेरा डाल दिया है। खास तौर पर जींद की सफीदों सीट पर अपनी बहन डा. वंदना शर्मा को जिताने में उन्होंने पूरी ताकत लगा दी है। इन सबके बावजूद जींद जिले की सीटें बीजेपी के लिए मुसीबत बनी हुई हैं। उचाना से ओमप्रकाश चौटाला के पौत्र दुष्यंत बीरेंद्र सिंह की पत्नी प्रेमलता से काफी आगे हैं। अगर प्रेमलता जीतती हैं तो चमत्कार ही होगा। यही हाल सफीदों का है, जहां पार्टी ने पूरी ताकत लगा दी है, लेकिन वंदना की उम्मीदें पूरी होती नहीं दिख रहीं। सारे प्रयास के बावजूद भाजपा लोकसभा चुनाव की तरह लहर नहीं पैदा कर सकी है। 
कांग्रेस की स्थिति बहुत खराब है। मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हु्डडा स्टार प्रचारक हैं। बेटे दीपेंद्र हुड्डा उनके बाद सबसे ज्यादा रैली व सभाएं करने वालों में हैं। प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर पूरे मन से मैदान में नहीं दिख रहे। कुमारी सैलजा ऐसे प्रचार कर रही हैं, जिसे किसी दूसरे राज्य की नेता हों। आखिर में सचिन पायलट को लाकर पार्टी ने जरूर अच्छा किया है, लेकिन बहुत देर हो चुकी है। 
कुछ माह पहले तक बड़े-बड़े दावे करने वाली हरियाणा जनहित कांग्रेस की स्थिति वर्ष 2009 के चुनाव से भी बुरी लग रही है। अगर बहुत अच्छा हुआ तो तीन सीटें जीत सकती है दो पर टक्कर दे सकती है। जीत की संभावना वाली तीन सीटों में कुलदीप बिश्नोई (आदमपुर), उनकी पत्नी रेणुका (हांसी) और भाई चंद्रमोहन (नलवा) हैं। फतेहाबाद से दूड़ाराम की स्थिति भी अच्छी बताई जा रही है। विनोद शर्मा की हरियाणा जनचेतना पार्टी और गोपाल कांडा की हरियाणा लोकहित पार्टी का खाता खुल जाए तो बड़ी बात होगी। निर्दलीय जरूरी कई जगह अच्छी स्थिति में हैं। कलायत में पूर्व मंत्री जयप्रकाश चौ. बीरेंद्र समर्थक भाजपा प्रत्याशी को कड़ी टक्कर दे रहे हैं तो सफीदों में भी निर्दलीय मजबूत है। 
अब बात इंडियन नेशनल लोकदल की। प्रत्याशियों की घोषणा और चुनाव घोषणापत्र सबसे पहले जारी कर पार्टी ने जो बढ़त बनाई थी, प्रत्याशियों के विरोध ने सब पर पानी फेर दिया था। कॉडर आधारित पार्टी में उठे बवंडर का अनुमान तो विरोधियों को भी नहीं था, लेकिन मौजूदा नेतृत्व ने जिस तरह मजबूती से अपने फैसले पर अड़ा रहा, वह बाद में लाभकारी साबित हुआ। नीचे तक संकेत गया कि दबाव नहीं चलेगा। मगर, इनेलो प्रमुख ओमप्रकाश चौटाला ने जो रणनीति अपनाई उस पर आगे चर्चा होगी। जेबीटी भर्ती मामले में कानूनी की पतली गलियों से निकलकर वे अस्पताल में रहे। इस दौरान राजनीति का जो तानाबाना बुना, वह चुनाव में काम आ गया। राष्ट्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के अभ्युदय के बाद आपस में लड़ रहे लोहियावादियों, जेपीवादियों के लिए जरूरी हो गया था कि वे एक साथ आएं। चौटाला ने इस कवायद को मजबूती दी। 25 सितंबर की जींद रैली में नीतीश कुमार, देवगौड़ा, शरद यादव और प्रकाश सिंह बादल का एक साथ मंच पर आना राष्टीय राजनीति की अहम घटना साबित हुई। इसका सबसे अधिक फायदा इनेलो को मिला और वह मैदान में आ गई। कुछ ही दिनों के भीतर ही चौटाला ने विधानसभा चुनाव का पूरा परिदृश्य बदल दिया। देवीलाल परिवार को अपना परिवार बताने वाले नरेंद्र मोदी चौटाला पर सीधे हमले के लिए मजबूर हो गए। उन्होंने परिवारवाद जैसे सैद्धांतिक प्रहारों से नीचे उतरकर गुंडों व लुटेरे तक बता दिया। बेटों पर भरोसा नहीं होने जैसे आरोप लगाए। लेकिन यहीं मोदी मात खा गए। उनके तीखे हमलों ने चौटाला के प्रति सहानुभूति बढ़ा दी। जिसका डर था वही हुआ। यही कारण था कि चौटाला ने कहा, मोदी जहां-जहां जाएंगे भाजपा हारेगी और इनेलो जीतेगा। जब तक उन्हें कानूनी शिकंजे में कसा जाता, वे अपना कर गए। 
बहरहाल, चुनाव नतीजों के बारे में कोई भविष्यवाणी करना मुश्किल है, लेकिन इतना तय है कि नतीजों को लेकर कोई आश्वस्त नहीं है। न जीतने वाले और न ही किंगमेकर बनने की चाह रखने वाले। 




























  

























Saturday, 11 October 2014

कैलाश जैसे ऊंचे सत्यार्थी




कैलाश जैसे ऊंचे स त्यार्थी


11 जनवरी, 1954 को विदिशा (मध्य प्रदेश) में जन्मे कैलाश सत्यार्थी को वर्ष 2014 के लिए शांति का सर्वोच्च नोबल पुरस्कार देश के करोड़ों लोगों के लिए वाकई सुखद और गौरवान्वित करने वाला है। हालांकि यह पुरस्कार उन्हें पाकिस्तानी बाला मलाला यूसुफजई ( 12 जुलाई 1997) के साथ संयुक्त रूप से मिला है, लेकिन कैलाश की उपलब्धि या समाज के लिए उनका योगदान इससे अप्रभावित है। बचपन बचाओ आंदोलन के जनक कैलाश ने साबित कर दिया कि वे कैलाश पर्वत से जैसे ऊंचे इरादों वाले हैं। आखिर इलेक्ट्रिकल इंजीनियर की नौकरी छोड़ कैलाश ने बाल अधिकारों के लिए संघर्ष की राह पकड़ी और अब तक 80 हजार बाल मजदूरों को मुक्त करा चुके हैं। चार भाइयों में सबसे छोटे कैलाश के इस कार्य में उनकी पत्नी सुमंधा कैलाश, अधिवक्ता पुत्र भुवन रिभु और पुत्रवधु प्रियंका संघर्ष के साथी हैं। पुत्री अस्मिता एक अमेरिकी विश्वविद्यालय में अध्ययन पूरा करने के बाद वाशिंगटन स्थित विश्व की जानी-मानी संस्था इंटरनेशनल सेंटर फॉर मिशन एंड एसप्लाइटेड चिल्ड्रेन में एक वर्ष तक फेलो रहीं हैं। कैलाश ने प्रारंभिक शिक्षा विदिशा के पेढ़ी स्कूल और तोपपुरा स्कूल में ग्रहण की। इसके बाद उन्होंने एसएसएल जैन स्कूल में शिक्षा लेने के बाद एसएटीआइ से बीई इलेक्ट्रिकल ब्रांच से इंजीनियरिंग की। इसी कॉलेज में दो साल तक पढ़ाया भी, लेकिन कॉलेज प्रबंधन से विवाद के बाद नौकरी छोड़कर दिल्ली चले गए। बाद में वह केस जीते कॉलेज प्रबंधन ने उन्हें वापस भी बुलाया पर सत्यार्थी जब तब अपनी अलग राह बना चुके थे।
दरअसल, कॉलेज प्रबंधन से विवाद कैलाश के जीवन के लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ। कालेज प्रबंधन के खिलाफ संघर्ष ने उनके अंदर अन्याय के खिलाफ लड़ने का जज्बा पैदा कर दिया। दिल्ली प्रवास के दौरान बच्चों के साथ हो रहे अन्याय व शोषण ने उन्हें झकझोर दिया। दिल्ली से सटे हरियाणा के फरीदाबाद, गुड़गांव और भिवानी में पहाड़ों पर खनन में बड़ी संख्या में बंधुआ मजदूरों का इस्तेमाल होता था। युवा ही नहीं मासूम बच्चों और महिलाओं को अमानवीय परिस्थितयों में काम करना पड़ता और दिहाड़ी भी नहीं मिलती। औद्योगिक माहौल भी श्रम विरोधी था। कैलाशने संघर्ष किए, खदानों से बड़ी संख्या में बंधुआ मजदूर मुक्त कराए। फैक्टरियों में श्रमिकों के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ मजबूती से खड़े हुए। शुरुआती दौर में ही उनके संघर्ष की वजह से सुप्रीम कोर्ट ने कई महत्वपूर्ण फैसले दिए। खासकर बाल श्रम पर।
अब अन्याय व शोषण के खिलाफ कैलाश एक मजबूत आवाज बन चुके थे। जहां भी गलत हो रहा होता, लोग उन्हें सूचना देते और कैलाश वहां पहुंच जाते। दिल्ली के बाद यूपी और उसके बाद बिहार पहुंचे तो वहां रुक ही गए। बिहार और अब झारखंड में उन्होंने काफी काम किया। यह एक तरह से उनका कर्मक्षेत्र बन गया।
उन्होंने बाल मजदूरी के खिलाफ वैश्विक मंच बनाया, जो अनेक देशों में सक्रिय है। उन्हें 1994 में रगमार्क की स्थापना का भी श्रेय है जो अब गुड वेव के  रूप में जाना जाता है। यह दक्षिण एशिया में एक तरह का बाल श्रम मुक्त उत्पाद का सामाजिक प्रमाण-पत्र है। उन्हें पहले भी कई बार नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया गया था, लेकिन पुरस्कार अब मिला।
यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि कैलाश के योगदान को भारत सरकार ने नहीं पहचाना। आम जनमानस भी अगर उनके कृतित्व से अनजान रहा तो निश्चित रूप से चिंता की बात है।

Friday, 10 October 2014

लोकतंत्र के तमाशबीन


लोकतंत्र के तमाशबीन 

यह कितनी बड़ी विसंगति है कि हरियाणा में साढ़े चार साल तक सरकार उन विधायकों के सहारे चलती रही जो योग्य थे ही नहीं। जिन्होंने गैरकानूनी और अनैतिक ढंग से सरकार का समर्थन दिया या यह कहें कि सरकार बनाने के लिए उनका समर्थन लिया गया। अलोकतांत्रिक तरीके से बनी सरकार पांच साल तक लोकतंत्र के नाम पर अच्छे-बुरे निर्णय लेती रही और सभी तमाशबीन रहे। इनमें वे सभी शामिल थे जिन पर लोकतंत्र को सहेजने और मजूबत करने की जिम्मेदारी है। वह विधायिका, कार्यपालिका और न्यापालिका हो या चौथा स्तंभ मीडिया। सभी अपनी जिम्मेदारी से बचते रहे।

वर्ष 2009 के विधानसभा चुनाव में हरियाणा की किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला था। सबसे बड़ी पार्टी के रूप में कांग्रेस उभरी जरूर थी, लेकिन सरकार बनाने के लिए उसे कुछ विधायकों का साथ चाहिए था। नई नवेली पार्टी हरियाणा जनहित कांग्रेस (भजनलाल) के छह विधायक चुनाव में जीतकर आए थे। इनमें एक पार्टी प्रमुख कुलदीप बिश्नोई ही थे। शेष पांच जिलेराम शर्मा, सतपाल सांगवान, राव नरेंद्र, विनोद भ्याना और धर्मसिंह छोक्कर। रातोंरात ये पांचों विधायक कांग्रेस के साथ हो गए और भूपेंद्र सिंह हुड्डा की अगुवाई वाली सरकार दूसरी बार बन गई। हो-हल्ला मचा, लेकिन न कुछ होना था और न ही हुआ। कुलदीप बिश्नोई ने विधानसभा अध्यक्ष की अदालत में अपील की। यहां वही हुआ जिसकी आशंका थी। जिसकी शिकायत की गई, उसकी पार्टी का सदस्य विधानसभा स्पीकर। न्याय की उम्मीद कैसे की जाती? हां, पैंतरेबाजी खूब हुई। एक साल तक यूं ही गुजर गया। दबाव पड़ने और लोकलाज से स्पीकर हरमोहिंदर सिंह चट्ठा कुछ करते, इससे पहले सरकार ने कैबिनेट में फेरबदल किया और उन्हें मंत्री बनाकर कुलदीप शर्मा को स्पीकर बना दिया। अब पूरी प्रक्रिया नए से शुरू हुई। एक साल यूं ही बीत गया। आखिर जल्द फैसले के लिए कुलदीप बिश्नोई हाईकोर्ट गए तो एकल पीठ ने आदेश दिया कि चार माह में सुनवाई करें। स्पीकर विधायिका के प्रमुख स्तंभ थे, सो यह कैसे पसंद आता। उन्होंने डबल बैंच के समक्ष अपील की और बताया कि एकल पीठ को उन्हें आदेश देने का अधिकार नहीं है। वह फैसले के लिए समय निर्धारित नहीं कर सकती। खैर, डबल बैंच सर्वोच्च अदालत ने इनकी बात समझी और आदेश दिया कि जब तक स्पीकर का फैसला नहीं आता विधायक किसी दल के सदस्य नहीं होंगे और कोई पद ग्रहण नहीं करेंगे। उनके बैठने की व्यवस्था सदन में अलग होगी। स्पीकर इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गए तो सर्वोच्च अदालत ने हाईकोर्ट के आदेशों पर रोक लगा दी और लेकिन साथ ही स्पीकर को तीन माह में निर्णय लेने का आदेश दिया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित समय के बिल्कुल आखिर में स्पीकर ने जो फैसला दिया सभी सन्न रह गए। उन्होंने पांच विधायकों को कांग्रेसी माना। बड़ा अजीब फैसला था, जिस हजकां का उन्होंने कांग्रेस में विलय होना बताया उसके सदस्य को सदन में बैठने की अलग से व्यवस्था थी। यानी हजकां (बीएल) बतौर राजनीतिक दल अस्तित्व में थी, उसका अपना एजेंडा, चुनाव चिह्न था। अब मामला हाईकोर्ट पहुंचा। सुनवाई होते-होते समय निकल गया और 09 अक्टूबर को फैसला आया कि उक्त पांचों विधायक 9 नवंबर 2009 से ही विधायक नहीं माने जाएंगे। उनकी सदस्यता रद मानी जाएगी। हाईकोर्ट ने स्पीकर के रवैये पर भी गंभीर सवाल उठाए, लेकिन लगता नहीं कि इसका कोई असर पड़ेगा। फैसले से प्रभावित ज्यादातर विधायक फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत में जाने की तैयारी में हैं। यह हुआ कानूनी पहलू। अब अगर राजनीतिक पहलू से देखा जाए तो अयोग्य ठहराए गए पांच विधायकों में चार इस बार कांग्रेस से विधानसभा प्रत्याशी है। पांचवें जिलेराम शर्मा को कांग्रेस ने टिकट नहीं दिया, क्योंकि आत्महत्या के लिए मजबूर करने के एक मामले में उन्हें दोषी ठहराया जा चुका है। लिहाजा वे निर्दलीय चुनाव मैदान में हैं। संभव है ये पांचों विधायक चुनाव जीत भी जाएं, लेकिन एक बड़ा सवाल यह कि जिनके फैसले से सरकार बनती-बिगड़ती है क्या उनकी कोई जवाबदेही नहीं है। या व्यापक उद्देश्य वाली सरकार येनकेन प्रकारेण बनाई जाए?
जनता को भी सोचना चाहिए कि ऐसे व्यक्ति को चुनकर सदन में क्यों भेजती है जो खरीदने-बिकने के लिए तैयार हों? अपनी इच्छा को जनइच्छा मान लें और मनमाने निर्णय लें। नैतिकता, लोकतांत्रिक मूल्यों और ईमानदारी जैसी बड़ी-बड़ी बातें करने वाले देश के कर्णधार राजनीतिज्ञों से तो कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। नैतिक मानदंडों पर फंसने पर ये कानून की दुहाई देते हैं।

सवाल यह भी है विधायक न रहते हुए इन्होंने विधानसभा सदस्य होने के जो-जो लाभ उठाए उनका क्या होगा? सत्ता सुख भोगा, सरकारी धन को लुटाया, सरकारी सुख-सुविधाओं का लाभ उठाया, उसका क्या होगा?



राम नाम के राही


राम नाम के राही



श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि यज्ञों में सबसे उत्तम जप यज्ञ है। राम नाम के जप को जीवन का सूत्र मानकर अध्यात्म मार्ग पर चलने वाले साधकों के लिए श्रीरामशरणम् पानीपत से उपयुक्त कोई और जगह नहीं हो सकती। अध्यात्म की नवीन परंपरा का अनुशरण कर सात्विकता, शुचिता और कर्मठता के साथ हजारों लोगों के जीवन को तार रहे इस पुण्यस्थल की स्थापना महान संत स्वामी सत्यानंद जी महाराज के कर कमलों से हुई थी। सन 1960 में करवा चौथ की अगली सुबह ''श्रीरामशरणम्'' का उद्घाटन करते हुए स्वामी जी ने कहा था कि इस स्थल का निर्माण स्वयं प्रभु राम की प्रेरणा से विशिष्टï लक्ष्य की पूर्ति के लिए हुआ है।
54 साल की अल्प अवधि में ही श्रीरामशरणम् के चतुर्दिक प्रसार और साधकों की बड़ी तादाद देखकर इस पर प्रभु की कृपा का आभास होता है। उद्घाटन के एक माह बाद ही स्वामी जी ने अपना पंचभौतिक देह त्याग दिया, लेकिन उपदेशों की ऐसी थाती छोड़ गए जो सदैव हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे।
श्रीरामशरणम् के रूप में स्वामी जी की जलाई लौ को मां शकुंतला देवी ने अपने रक्त से सींचा। हाथों की ओट देकर न केवल आंधी-तूफान से उसे बचाया, अपितु इसे पल्लवित-पुष्पित किया। उन्होंने श्रीरामशरणम् पानीपत की कई शाखाओं की स्थापना की ताकि अधिक से अधिक बहन-भाइयों में उस प्रकाश को बांट सकें। चार दशक की लंबी साधना में उनके कर्मशील हाथों ने उस लौ को प्रकाशपुंज बना दिया। उन्होंने साधकों को उच्च संस्कार दिए। प्रचार-प्रसार से दूर, आडंबर रहित और हर तरह की बुराइयों से मुक्त रहकर उन्होंने अध्यात्म मार्ग पर चलना सिखाया। उन्होंने बताया कि एक साधक को कैसा होना चाहिए? जरूरी नहीं कि वह परिवार से दूर रहे। सामाजिक व पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए भी परलोक सुधारा जा सकता है। राम नाम की ऊर्जा मन को निर्मल बनाने के साथ ही परमेश्वर के निकट ले जाती है। यह एक अच्छी मानसिक चिकित्सा भी है, जिससे सारे मनोविकार दूर हो जाते हैं। मानसिक शुद्धता हमें पवित्र राह पर आगे बढ़ाती है।
सन् 1996 में मां शकुंतला देवी से प्राप्त इस धरोहर की रखवाली का महती दायित्व मां दर्शी जी ने बखूबी संभाला। वह शकुंतला मां के दिए संस्कार को आत्मसात कर स्वामी जी के दिखाए धर्म मार्ग पर साधकों को सफलतापूर्वक आगे बढ़ा रही हैं। अनन्यता, पवित्रता, निष्कामता, समर्पण और सेवाभाव जैसे सात्विक गुण यहां के साधकों की पूंजी हैं। मां दर्शी जी नैतिकता को जीवन का अंग बनाने पर बहुत बल देती हैं। यहां जैसा अनुशासन तो शायद ही अन्यत्र दिखे। विशिष्ट अïवसरों पर हजारों की संख्या में आए साधक बिना किसी बाधा के सत्संग लाभ उठाते हैं।
इस पावन धरती पर प्रभु श्रीराम का निरंतर आह्वïान होता रहता है। दैनिक संध्या में ध्यान और भजन-कीर्तन हमें नई ऊर्जा से सराबोर करते हैं तो वर्ष भर चलने वाले सत्संग आदि कार्यक्रम हमें उच्च आध्यात्मिक संस्कार देते हैं। रामनवमी से पहले साठ दिन के बाल्मीकीय रामायणसार के पाठ में आदर्श पुरुष श्री रामचंद्र जी का चित्र देखने को मिलता है। जन्माष्टïमी पर 18 दिन के गीता-पाठ से निष्काम-कर्म, अनन्य-भक्ति तथा स्थितप्रज्ञता का संदेश मिलता है। साधना-शिविरों में जन्म-जन्मातंरों से बिछुड़ी आत्माएं प्रभु के साथ एकाकार हो जाती हैं।
श्रीरामशरणम आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग को स्कूल से लेकर प्रोफेशनल शिक्षा तक के लिए बहुत बड़ी संख्या में छात्रवृत्तियां तथा अनुदान देता है। इसके परिसर में एक होम्योपैथिक तथा एक ऐलोपैथिक चिकित्सालय का संचालन होता है ताकि उचित परामर्श तथा औषधि से रोगों से मुक्ति पाई जा सके।
दर्शी मां के कुशल मार्गदर्शन में गंगा जैसी निर्मलता और पवित्रता को संजोए श्रीरामशरणम् की शुचिता, शीतलता, मर्यादा-प्रियता निरंतर बढ़ रही है। यहां निराश्रयों को आश्रय मिलता है, भटके हुओं को दिशा मिलती है। यहां आकर तन-मन निरोग हो जाता है। आत्मा आलोकित हो उठती है। जीवन संवरते हैं। उद्घाटन दिवस पर इस पावन भूमि को बारंबार नमन।









Monday, 6 October 2014

चुनावी रेस में तिहाड़ वाले चौटाला




चुनावी रेस में तिहाड़ वाले चौटाला


हरियाणा में चुनावी माहौल इन दिनों पूरे शबाब पर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब तक करनाल, हिसार, कुरुक्षेत्र व फरीदाबाद में जनसभाएं कर चुनावी लहर को काफी हद तक अपने पक्ष में मोड़ते दिख रहे हैं, वहीं कांग्र्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने एक ही दिन महम और सिरसा में जनसभाएं कर निराश पार्टी जनों में जान डालने की कोशिश की है। राज्य में तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण खिलाड़ी राजनीतिक इंडियन नेशनल लोक दल ने आश्चर्यजनक रूप से चुनावी दौड़ में न केवल वापसी की है, बल्कि दूसरों को कड़ी टक्कर दे आगे बढ़ता दिख रहा है। खासतौर पर 25 सितंबर को पूर्व उपप्रधानमंत्री चौ. देवीलाल के जन्मदिवस पर जींद में रैली इसके लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हुई है। रैली पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा, जनता दल युनाइटेड के अध्यक्ष शरद यादव, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल की मौजूदगी ने राज्य ही नहीं वरन राष्ट्रीय स्तर पर एक राजनीतिक समीकरण का संकेत दिया था। रैली में समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव को भी आना था, लेकिन ठंडा कर खाने वाले नेताजी किसी जल्दबाजी में नहीं हैं। लिहाजा उन्होंने अपने अनुज शिवपाल यादव को भेज उपस्थिति दर्ज करा दी। बताते हैं कि रैली को राजनीतिक स्वरूप देने का तानाबाना नीतीश कुमार ने बुना था और सफल भी रहे। हालांकि मुलायम आ जाते तो उनका काम आसान हो जाता।
मगर, इनेलो के लिए इन नेताओं की मौजूदगी से भी ज्यादा अहम रही उसके सुप्रीमो ओमप्रकाश चौटाला का चुनावी शंखनाद बजाना। पूरी आयोजन चौटाला के नाम हो गया, जो नीतीश को झटका था, लेकिन इनेलो के लिए रामबाण दवा। अपने भाषण में चौटाला ने अहसास करा दिया था कि वे पूरी तैयारी से आए हैं। तिहाड़ से शपथ लेेने की उनकी बात आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा जैसे दिग्गजों के लिए जुमला बना हुआ है। चौटाला का होमवर्क कितना मजबूत है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि स्वास्थ्य आधार पर जमानत के दौरान उनके चुनाव प्रचार पर चुनाव आयोग कुछ करने की स्थिति में नहीं है और सीबीआइ अदालत में जल्द सुनवाई की दरखास्त लगा रही है। केंद्र और राज्य की सरकारों के हाथ तो वैसे ही बंधे हैं। कोई गलती कर वे इनेलो को और बढ़त नहीं दिला सकते।
सबसे पहले प्रत्याशी घोषित कर इनेलो ने जो बढ़त बनाई थी, कैडर आधारित पार्टी में बगावत ने पानी फेर दिया था। तीन-तीन बार विधायक रहे नेताओं ने पार्टी छोडऩे में कोई समय नहीं लगाया। दूसरी, तीसरी और चौथी सूची में भी यही स्थिति रही। आखिर जींद की उचाना सीट से हिसार के मौजूदा विधायक दुष्यंत चौटाला को उतारना पड़ा। पहली बार इस परिवार की बहू चुनावी मैदान में उतरी। शुरू में कार्यकर्ता पार्टी की सफलता को लेकर संशय में थे। उनका उत्साह बनाए रखना पार्टी नेतृत्व को मुश्किल हो रहा था, लेकिन ओम प्रकाश चौटाला के मैदान में आते ही सारी कमी दूर हो गई। आज स्थिति यह है कि चौटाला पार्टी के स्टार प्रचारक बने हुए हैं। पूरा चुनाव उनके इर्द-गिर्द घूमने लगा है। हालांकि अभी चुनाव परिणाम की भविष्यवाणी करना जल्दबाजी होगी, लेकिन यह तय है कि चौटाला ने पार्टी को रेस में कांग्र्रेस से आगे कर दिया है।

Friday, 3 October 2014

भगवान भरोसे श्रद्धालु



भगवान भरोसे श्रद्धालु


पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में भगदड़ के दौरान बड़ी संख्या में लोगों की मौत ने एक बार फिर देश के सामने कई सवाल खड़ा कर दिया है। जैसा कि बताया जा रहा है दशहरा के अवसर पर लंका दहन देखने गए लोगों में भगदड़ मच गई और करीब चार दर्जन लोग हताहत हो गए। घायलों की संख्या का अंदाजा लगाना मुश्किल है। यह वही गांधी  मैदान है जहां नरेंद्र मोदी के चुनावी भाषण के दौरान कई धमाके हुए थे। यह भाजपा नेताओं की समझदारी ही थी कि उन्होंने धमाकों की भयावहता की भनक लोगों को नहीं लगने दी। अन्यथा उस दिन और बड़ी अनहोनी हो सकती थी।
धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों में बड़ी संख्या में लोगों की मौजूदगी और उनका भगदड़ का शिकार होना जैसे हमारी नियति बन गई हो। लगातार इस तरह की घटनाओं के बावजूद हम चेतने के लिए तैयार नहीं हैं। अन्यथा महाकुंभ जैसे आयोजन में इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर भगदड़ कैसे मच जाती और पूरी दुनिया में हमारी किरकिरी होती। पटना के गांधी मैदाना में भी चारों तरफ चीत्कार मच रही थी और कोई कुछ करने की स्थिति में नहीं था। नागरिक प्रशासन असहाय की मुद्रा में था, जैसे उसे लकवा मार गया हो। दैखा जाए तो भारत में यह स्थायी समस्या है। विपदा की स्थिति में हमारा पूरा तंत्र पंगु हो जाता है। लगता ही नहीं है कि देश की सबसे प्रतिष्ठित परीक्षा उत्तीर्ण करने वालों को प्रशासन संभालने की जिम्मेदारी दी गई है। जिले की कमान उन लोगों के हाथ में होती है जो सबसे प्रतिभावान और योग्य माने जाते हैं। समय-समय पर उन्हें प्रशिक्षण भी दिया जाता है, लेकिन बहुत कम ही लोग है जिन्होंने इसकी सार्थकता साबित की है। सबसे चिंतनीय यह है कि बेशुमार हादसों के बाद भी हम ऐसी व्यवस्था या प्रणाली विकसित नहीं कर सके जो हादसों से निपटने में सक्षम हो। आज हम मंगल अभियान के लिए खुद पर इतरा रहे हैं, नदियों को प्रदूषण मुक्त करने का बीड़ा उठा रहे हैं और पूरे देश को गंदगी से मुक्त करने की इच्छाशक्ति रखते हैं, लेकिन इसका कोई मायने नहीं अगर हम तीज-त्योहारों को काल बनने से न रोक सकें। यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है कि आपदा नियंत्रण के मोर्चे पर हम पूरी तरह नाकाम साबित हुए हैं।
कायदे से तो हादसे की नौबत ही नहीं आनी चाहिए। आखिर गांधी मैदान में लोगों का जुटना अनायास तो नहीं था। सभी को पता था कि दशहरा के अवसर पर बड़ी संख्या में लोग आएंगे, फिर जरूरी इंतजाम क्यों नहीं किए गए? इसके लिए जिम्मेदार कौन है और उसे क्या दंड दिया जाएगा? ये सिर्फ सवाल हैं, जवाब देने के लिए न तो कोई तैयार है, न ही इसकी जरूरत समझी जाती है। अगर इन सवालों का सामना करने का साहस और नैतिकता होती तो ऐसे हादसे होते ही नहीं।
हालत यह है कि मेलों, जलसों, जनसभाओं व रैलियों में आने वाले लोग भी सरकार से कोई उम्मीद नहीं रखते। वे पूरी तरह भगवान के भरोसे आते हैं और अगर कुछ गलत होता है तो भगवान की इच्छा मान संतोष कर जाते हैं। काश ऐसा नहीं होता। जब हम हादसों के लिए जिम्मेदार लोगों की पहचान करेंगे, उनके कारणों को जानने की कोशिश करेंगे, तभी उन कारणों को दूर भी कर सकेंगे। कम से कम भगवान के इन भक्तों को भगवान के भरोसे तो न छोड़ा जाए।























Thursday, 2 October 2014

आधी अधूरी तैयारी


आधी अधूरी तैयारी


नरेंद्र दामोदर दास मोदी की अगुवाई वाली भाजपा सरकार ने राष्टपिता महात्मा गांधी की जयंती पर 'स्वच्छ भारत अभियान' का श्रीगणेश कर दिया है। मोदी सरकार का यह महा अभियान कई मायनों में ऐतिहासिक और दूरगामी प्रभाव वाला है। इसमें कोई संकोच नहीं कि स्वच्छता एक बहुत बड़ा मुद्दा है और सरकार ने इसके लिए वृहद अभियान छेड़कर सराहनीय कार्य किया है। अमेरिकी यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री ने जिस तरह स्वच्छता के सपने को दुनिया के सामने रखा, उससे लगता है कि वे इस पर काफी दिनों से काम कर रहे थे। अपने इस सपने को साकार करने के लिए उन्होंने कई रातें नहीं सोईं। शुरुआत ही इतनी धमाकेदार हुई कि प्रचार-प्रसार की जरूरत नहीं रह गई। सबसे अच्छा अवसर का चयन है। स्वच्छता  के लिए महात्मा गांधी की जयंती से उपयुक्त कोई अवसर नहीं हो सकता था। राष्ट्रपिता से जोड़कर उन्होंने अभियान को व्यक्ति, पार्टी, विचारधारा से ऊपर ले जाकर आम जनमानस का विषय और उसकी चिंता बना दिया है। इससे बता चलता है कि मोदी अभियान को लेकर वैचारिक रूप से कितने तैयार हैं। अभियान के संचालन के लिए चुने गए नवरत्नों में उन्होंने सिनेमा, समाजसेवा और अध्यात्म क्षेत्र में नए प्रतिमान गढ़ने वाले लोगों को शामिल किया। स्वामी रामदेव, आमिर खान, प्रियंका चोपड़ा और सलमान खान ऐसे लोग हैं जिनका अपने प्रशंसकों पर काफी प्रभाव है। यह जरूरी था कि अभियान से हर वर्ग को जोड़ा जाए। किसी को निरापद या अगंभीर मानना उसके साथ ही नहीं, देश के साथ भी अन्याय होगा। मोदी ने यही किया।

ऐसा कम ही होता है कि सबकुछ तय योजना के मुताबिक हो। मोदी का यह सपना भी इतनी आसानी से साकार होने वाला नहीं है। बड़ी समस्या इस अभियान के लिए धन की आएगी। जिस तरह से निजी क्षेत्र को इससे जोड़ा जा रहा है, उससे लगता है कि सरकार धन का इंतजाम कर लेगी। कुछ रणनीतिक खामियां भी दिख रही हैं। अभियान शुरू करने से पहले कूड़ा निस्तारण पर कार्य करना चाहिए था, जिसके अर्से से जरूरत महसूस की जा रही है। अगर कूड़ा रखने, गंदगी को नष्ट करने की व्यवस्था नहीं हो तो एक जगह से हटाई गंदगी दूसरी जगह ही जाएगी। खत्म नहीं हो सकती। अगर कूड़ादान पड़ा हो तो कम ही लोग होंगे जो उसके बाहर कागज के टुकड़े फेंकेंगे। यही स्थिति दूसरे मामलों में भी है। अगर कालोनियों में दैनिक कूड़ा-कचरा उठाने की व्यवस्था हो तो कोई पड़ोस में क्यों डालेगा? इसलिए सरकार को कूड़ा निस्तारण और प्रबंधन पर कार्य करना चाहिए था। इस लिहाज से उसकी तैयारी आधी-अधूरी ही लगती है। 

धन और दूसरी चीजों से भी ज्यादा जरूरी है इच्छाशक्ति का होना। बगैर इसके इतना बड़ा अभियान चल ही नहीं सकता। वैसे भी सफाई एक भाव है, जो हमारे अंदर से पैदा होता है। यह हमे माता-पिता, परिवार और समाज से संस्कार में मिलता है। लिहाजा सफाई के लिए हमें संस्कार में बदलाव तक जाना होगा। प्रारंभिक इकाई की पहचान कर वहीं से कार्य शुरू करना होगा और आखिर तक पहुंचें तभी लक्ष्य की प्राप्ति होगी। हमें बच्चों से लेकर बड़े-बुजुर्गों तक में सफाई का भाव पैदा करना होगा। उन्हें बताना होगा कि यह कानूनी व सामाजिक नहीं वरन नैतिक दायित्व है।

Wednesday, 1 October 2014

शाबाश सरिता


शाबाश सरिता


भारतीय महिला मुक्केबाज सरिता देवी ने जो किया वाकई सराहनीय है। इंचियोन एशियाई खेलों के सेमीफाइनल मुकाबलों में जजों के फैसले को प्रतिकार कर उन्होंने जता दिया है कि किसी खिलाड़ी के लिए आत्मसम्मान से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता। निसंदेह पदक के लिए वर्षों तैयारी की जाती है, जीवन-मरण का सवाल बना लिया जाता है, लेकिन वह भी आत्मसम्मान से बढ़कर नहीं है। 60 किलोग्राम भार वर्ग के सेमिफाइनल मुकाबलों में पूरा स्टेडियम सरिता देवी को विजेता मान रहा था, लेकिन जजों ने मेजबान देश की खिलाड़ी पार्क को विजेता घोषित कर दिया। फैसला आते ही स्टेडियम में चीटिंग-चीटिंग की हूटिंग होने लगी, लेकिन जजों पर कोई असर नहीं पड़ा और उन्होंने पार्क को विजेता घोषित कर दिया। मगर, सरिता देवी के लिए यह स्वीकार करना मुश्किल था और वे रो पड़ीं। भारतीय दल ने औपचारिक आपत्ति भी जताई, लेकिन जैसा कि इस तरह के मामलों में होता है उसे दरकिनार कर दिया गया। सम्मान समारोह के दौरान सरिता ने पहले तो पदक लेने से इन्कार कर दिया। हालांकि बाद में उन्होंने इसे लिया और प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी को देकर रिंग से बाहर आ गईं।
अंतरराष्ट्रीय मुक्केबाजी संघ ने सरिता के फैसले की निंदनीय करार देते हुए जांच बैठा दी है। हो सकता है उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई भी हो, लेकिन वह पदक लौटने से मिली नैतिक जीत और आत्मिक बल के सामने बहुत तुच्छ है। कई बार खोकर हम ज्यादा जीतते हैं, क्योंकि यह हार में विजय से ज्यादा ऊर्जा देती है।

किवदंती बन चुकी मणिपुर की मुक्केबाज मैरी कॉम को गोल्ड जीतने के लिए देशभर से बधाई मिल रही है, लेकिन उन्होंने भी अपनी जीत का एक बहुत बड़ा अंश सरिता के आंसुओं को समर्पित कर दिया। बकौल मैरी कॉम, सरिता के आंसू देख नहीं पा रही थी। उनके साथ अन्याय हुआ और इसी अन्याय का प्रतीकात्मक बदला लेने के लिए हर हाल में स्वर्ण पदक जीतना चाहती थी।

अगर देखा जाए तो सरिता की हार मैरी कॉम की जीत पर भारी पड़ रही है। इस बहादुर महिला खिलाड़ी ने अनगिनत खिलाड़ियों के लिए आत्मसम्मान की मिसाल पेश की है। बेहतर होगा भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय मुक्केबाजी संघ के साथ लड़ाई में सरिता के साथ मजबूती से खड़ी हो। यह सरिता नहीं भारतीय खेल और उसके जज्बाती खिलाड़ियों की लड़ाई है।






Tuesday, 30 September 2014

निर्मम मोदी


निर्मम मोदी

अमेरिका में धूम मचाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारत में कुछ मित्र आलोचना भी कर रहे हैं। यह अलग बात है कि आलोचना के लिए उन्हें अपने तर्क या यह कहें कि कुतर्क ढूंढ़ने पड़ रहे हैं। कांग्रेस अमेरिकी कंपनियों के सीईओ के साथ बैठक को दिखावा बता रही है.तो कुछ मित्र मेडिसन स्कवायर पर प्रोग्राम के दौरान विरोध की तख्तियां उठाए कुछ अमेरिकियों की तस्वीर सोशल मीडिया पर शेयर कर रहे हैं। मोदी की इस पूरी यात्रा के दौरान अगर सबसे बुरी स्थिति किसी की है तो निश्चित रूप से अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की। आखिर जिस व्यक्ति को उनका देश वीजा तक नहीं दे रहा था, आज उसी के लिए उन्हें लाल कालीन बिछानी पड़ रही है। जिस व्यक्ति को ओबामा कट्टर हिंदू वादी, संकीर्ण सोच और सांप्रदायिक हिंसा का कारण मानते रहे हों, जो उनके जैसा अकादमिक न हो। जिसे कुलीन वर्ग हेय दृष्टि से देखता रहा और कुछ वर्षों या कहें कुछ महीने पहले तक अमेरिका के लिए निरापद रहा हो, उसका गले लगाकर स्वागत करना पड़ रहा है। दूसरी तरफ मोदी एक ऐसे योद्धा हैं जो शत्रु पर तनिक भी रहम नहीं करते, पूरी तरह निर्मम। उन्हें इस बात की तनिक भी परवाह या चिंता नहीं है कि उनके समर्थन में लग रहे मोदी-मोदी के नारे से अमेरिकी राष्ट्रपति और उनके विरोधियों पर क्या बीत रही होगी? हालांकि यह निर्ममता मोदी का गुण है, जो उन्हें अपनों से दूर लेकिन विजयश्री दिलाता है। याद कीजिए गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने तत्कालीन वरिष्ठ नेताओं के साथ कैसा सुलूक किया? व्यक्तिगत निष्ठा, सम्मान और आदर का भाव कभी उनकी कमजोरी नहीं बने। एक राजा की तरह शासन के हर रोड़े को उन्होंने निर्ममता से दूर फेंका। वह केशु भाई पटेल रहे हों या शंकर सिंह बघेला। प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित होने के बाद यही कार्य उन्होंने केंद्रीय राजनीति में किया। जसवंत सिंह जैसे नेताओं को उन्होंने टिकट नहीं देने दिया। लालकृष्ण आडवाणी को टिकट देकर कृपा ही की गई, लेकिन सरकार के गठन में आडवाणी, जोशी और उनके दूसरे समकालीन नेताओं का क्या हुआ? यह सभी के सामने है। हां जिन्होंने फैसले को बगैर ना-नुकुर के स्वीकार कर लिया, एक-एक कर उन्हें राज्यपाल बनाकर राजभवन भेज जा रहा है। इतना ही नहीं, मंत्रिमंडल सहयोगियों के प्रति उनका व्यवहार भी किसी से छिपा नहीं है। लाख कोशिश करके भी नंबर दो राजनाथ सिंह अपनी पसंद के अधिकारी को साथ नहीं रख सके। और चुनाव हारने के बावजूद अरुण जेटली रक्षा और वित्त जैसे बड़े मंत्रालय संभाल रहे हैं। कमजोर शैक्षणिक रिकार्ड की स्मृति ईरानी मानव संसाधन जैसा मंत्रालय संभाल रही हैं।

यही निर्मम व्यवहार उनका अमेरिका में भी है। वह पूरे इत्मीनान से बराक ओबामा के सीने पर मूंग दर रहे हैं। विरोधी इस इंतजार में हैं कि मोदी कोई गलती करें, दूसरी तरफ मोदी हैं कि एक के बाद एक कर सफलता व लोकप्रियता के न केवल झंडे गाड़ रहे हैं बल्कि नए कीर्तिमान बना रहे हैं।












Saturday, 27 September 2014

राजनेता की योग अपील



राजनेता की योग अपील


पांच दिन की यात्रा पर अमेरिका गए भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार शाम संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित कर कई कीर्तिमान बनाए। उन्होंने दुनिया की इस सबसे बड़ी पंचायत को राष्ट्रभाषा हिंदी में संबोधित किया। बतौर विदेशमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी संयुक्त राष्ट्र सभा को हिंदी में संबोधित कर चुके हैं। ऐसा करने वाले वे पहले भारतीय राजनेता थे। मोदी अटल जी से कई मामलों में अलग हैं। हालांकि दोनों को हिंदुत्वादी माना गया, लेकिन अटलजी सर्वस्वीकार्य और सदभाव के प्रतीक हैं। उन्हें हिंदुत्व का नरम चेहरा माना गया। मगर, मोदी की छवि कट्टर हिंदुत्ववादी की रही है। आज का उनका संयुक्त राष्ट्र में संबोधन कई मामलों में खास रहा। अपनी छवि के अनुरूप ने उन्होंने दुनिया के समक्ष स्पष्ट विचार रखे। आतंकवाद को दो चश्मों से देखने वालों की उन्होंने जमकर खबर ली तो दुनिया का चौधरी बनने की कोशिश कर रहे देशों को भी उनकी सीमा बताई। सिर्फ राजनीति के लिए राजनीति करने वाले देशों की उन्होंने खिंचाई की और बता दिया कि अगर वाकई दुनिया का भला करना है तो चीजों को उलझाने के बजाय सुलझाया जाए। बात-बेबात संगठन बनाने के बजाय एक ही संगठन को मजबूत, लोकतांत्रिक और उपयोगी बनाया जाए। उसकी साख बढ़ाई जाए। जैसा कि उन्होंने भारत में किया। कई मंत्रालय खत्म कर बड़े मंत्रालय बनाए। हर चीज को सरल किया। नीति और कार्य व्यवहार में सरलता लाई। नरेंद्र मोदी ने दुनिया को बताया कि भारत की विदेश नीति वसुधैव कुटुंबकम की है जो भारत की आत्मा है। इसका दर्शन है। यह थोपी हुआ नहीं, बल्कि मौलिक है। इसलिए किसी देश को भारत से डरने की जरूरत नहीं है और न ही शंका करने की। हम किसी तोड़फोड़ में शामिल नहीं होते। हमारा उद्देश्य ही सकारात्मक है। नकारात्मक सोच पर उन्होंने जिस तरह चोट की वह काबिले तारीफ थी। प्रधानमंत्री ने पूरी मजबूती के साथ रखा कि नकारात्मता त्यागनी होगी। बगैर इसे छोड़े हम दुनिया को सही दिशा में नहीं ले जा सकते। सबसे अहम योग पर उनकी अपील रही। शायद यह पहली बार हुआ जब किसी भारतीय राजनेता ने इतने बड़े मंच पर योग को तमाम समस्याओं का समाधान बताया हो। कम से कम इसके लिए मोदी की जितनी तारीफ की जाए कम होगी। वैसे भी अमेरिकी प्रवास के दौरान मोदी की धूम मची हुई है। दूसरे देशों के नेताओं को शायह ही इतनी अहमियत मिली हो। मोदी अपने बारे में व्याप्त कुधारणाओं को जिस तरह खत्म कर रहे हैं, वह भी कम प्रेरक नहीं है। वह दिन दूर नहीं जब डरी सहमी दुनिया उन्हें आशा की किरण से देखे और गले लगाए। आखिर आज उसी अमेरिकी में मोदी-मोदी के नारे लग रहे हैं, जो उन्हें वीजा तक देने को तैयार नहीं था और अपमानजनक व्यवहार कर रहा था। आज वही अमेरिका उनके लिए लाल कालीन बिछाए हुए है। किसी नेता की महानता के लिए दो गुण जरूरी माने गए हैं। पहली उसकी नीतिगत स्पष्टता और दूसरी विषम से विषम परिस्थितों को अनुकूल बनाने की काबिलियत। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में ये दोनों गुण बार-बार दिखे हैं। संयुक्त राष्ट्र में उनके भाषण का विश्लेषण और उसके प्रभाव का आकलन आने में अभी वक्त लगेगा, लेकिन प्रथमदृष्टया तो यह प्रभावी लगता ही है।


 







Friday, 26 September 2014

कैसे हो मासूम का गर्भपात



कैसे हो मासूम का गर्भपात

हरियाणा में इन दिनों 14 साल की मासूम लड़की के गर्भपात का मुद्दा सभी के लिए चिंता का सबब बना हुआ है। दरअसल, अदालत ने दुष्कर्म पीडि़त इस नाबालिग को गर्भपात की इजाजत दे दी है, लेकिन मेडिकल कानून इसकी इजाजत नहीं देते। मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट (एमटीपी) के अनुसार गर्भ धारण के बीस सप्ताह बाद गर्भपात नहीं किया जा सकता, जबकि बच्ची का गर्भ पांच माह का हो चुका है। इस अïवस्था में गर्भपात जोखिम भरा हो सकता है। अदालत के आदेश और बच्ची का भविष्य देख डॉक्टर गर्भपात करते हैं दूसरा कानून टूटता है। दूसरी तरफ, पेट में पल रहे बच्चे को लेकर मानसिक व शारीरिक वेदना से ग्रस्त किशोरी की हालत देख परिजन किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में हैं। पिता तो इस कदर टूट गए हैं कि गर्भपात न होने पर आत्मदाह कर लेने की बात कह रहे हैं। मां की तो बुद्धि ही मार गई है। बच्ची की स्थिति यह है कि लगातार काउंसलिंग का कोई असर नहीं दिख रहा। वह कुछ बोलती ही नहीं, ज्यादा पूछने पर रो पड़ती है। मनोविशेषज्ञ भी उसकी हालत देख चिंतित हैं।
लड़की को इस दशा में पहुंचाने वाला 57 वर्षीय व्यक्ति रिश्ते में उसका दादा लगता है। बीते छह माह से डरा-धमकाकर वह उसे हवस का शिकार बना रहा था। मां भी नहीं समझ पा रही थी कि बेटी डरी-सहमी और गुमशुम क्यों रहती है? शारीरिक परेशानी बढऩे पर मां ने प्यार से पूछा तो उसने जो बताया पैरों तले जमीन खिसक गई।

Wednesday, 24 September 2014

प्रवीणता सबसे बड़ी निधि


प्रवीणता सबसे बड़ी निधि

स्वामी दयानिधि जी आज नई ताजगी से भरपूर थे। एक दिनपूर्व सत्संग में उत्पन्न असहज स्थिति का उन पर कोई असर नहीं था। वे बोले, निधि मनुष्य को नए गुण से संपन्न बनाती है। यह हमें प्रवीण बनाती है। प्रवीण यानि स्किल्ड, निपुण, दक्ष, योग्य, काबिल, महारथी, हुनरमंद, फनककार आदि आदि। यह प्रवीणता हमें सभी का प्रिय बनाती है। वे बोले, योग्य व्यक्ति हमेशा योग्यता का सम्मान करता है, काबिल व्यक्ति को सिर-माथे पर चढ़ाता है, लेकिन अयोग्य लोग ईर्ष्या करते हैं। उन्हें सामने वालों की काबिलियत बर्दाश्त नहीं होती और वे तरह-तरह की साजिश करते हैं। मगर, विजय प्रवीण की ही होती है। इसलिए अपने काम में प्रवीणता हासिल करें। किसी काम को पूरे मनोयोग से करें, दिल से करें, उसमें पूरा जी-जान लगा दें। यह समझ लें कि उसे सर्वोत्तम ढंग से करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है। वैसे, यह गुण व्यक्ति के स्वभाव में होता है। एक कार्य को ठीक से करने वाला व्यक्ति ही दूसरा काम भी अच्छे ढंग से कर पाता है। संजीदगी को अपने स्वभाव में लाएं और बच्चों में भी इसे विकसित करें। उन्हें बताएं कि प्रवीणता सबसे बड़ी निधि है, इसलिए हम प्रवीण बनें।



हर दिल अजीज अनमोल निधि


हर दिल अजीज अनमोल निधि

स्वामी दयानिधि जी के सत्सग में निधि पर चर्चा हुई। स्वामी जी बोले, निधि यानी कोष, खजाना, धन-दौलत, संपत्ति का सांसारिक और पारलौकिक जीवन में बहुत महत्व है। निधि के बिना सबकुछ शून्य है। ज्ञान की निधि जहां हमें बुद्धि विवेक देती है, सोचने समझने की शक्ति देती है, उचित-अनुचित का भेद सिखाती है, वहीं दया व करुणा की निधि सही अर्थों में इंसान बनाती है। मानवीयता भरती है। स्वास्थ्य भी बहुत बड़ी निधि है जिसके बिना हम कोई सांसारिक कार्य नहीं कर सकते। बुजुर्ग समाज के लिए निधि हैं तो नारी परिवार के लिए। स्त्री एक ऐसी निधि है जिसका कोई मोल नहीं, कोई विकल्प नहीं। रूप-सौंदर्य भी मनुष्य के लिए किसी निधि से कम नहीं है। स्त्री के लिए पति निधि है तो पति-पत्नी के लिए संतान। पुस्तकें बेशकीमती निधि हैं, जो जीवन की राह दिखाती हैं। स्वामी जी पूरे लय में थे। धारा प्रवाह बोल रहे थे और साधक मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे। इस बीच, एक युवती उठी। थोडी झिझक लेकिन आक्रोश के साथ वह बोल पड़ी। स्वामी जी, आपने निधि की इतनी प्रशंसा की, इसके महत्व बताए, लेकिन समझता कौन है? मैं भी तो निधि हूं। मुझे तो ऐसा नहीं लगा कि निधि को लोग इतना अहम समझते हों। वह बोलती गई नारी पर हो रहे अत्याचार पर, उसके शोषण पर। समाज में बैठे गिद्ध और भेड़ियों पर। बसों, ट्रेनों में सफर के दौरान हो रहे अपमानों पर। आफिस में हो रहे भेदभाव और दूधवाले की मनमानी पर। अब लोग स्वामी जी नहीं, निधि को सुन रहे थे और वह अपने रौ में बही जा रही थी।

Friday, 23 May 2014

केजरीवाल का ड्रामा


केजरीवाल का ड्रामा


आम आदमी पार्टी के संयोजक और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का नया ड्रामा जितना राजनेताओं के खिलाफ है, उससे ज्यादा भारतीय न्याय व्यवस्था का मखौल उड़ाने वाला है। केजरीवाल भारतीय न्यायिक व्यवस्था का एक तरह से अनादर कर रहे हैं। उनकी स्थिति ऐसे व्यक्ति जैसी है, जो हड़बड़ी में एक के बाद एक गलतियां करता जाता है। कई बार तो ऐसा लगता है कि केजरीवाल को यही नहीं पता कि वे चाहते क्या हैं या उन्हें करना क्या है? ताजा मामले में उनके समर्थक तर्क दे रहे हैं कि महात्मा गांधी ने भी मुचलका भरने से इन्कार कर जेल जाना पसंद किया था। ये बुद्धिमान लोग शायद यह भूल जाते हैं कि महात्मा गांधी जी ब्रिटिश हुकूमत और उसकी न्याय व्यवस्था को चुनौती थी, भारतीय कानून को नहीं। सोशल साइटों की स्थिति केजरीवाल जैसे ज्यादा कन्यफ्यूज लोगों की है। अगर हम सिर्फ जज की टिप्पणियों को ध्यान से देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि पूरा मामला क्या है और केजरीवाल कहां खड़े हैं? जज महोदया को कहना पड़ता है कि आप एक नागरिक की गंभीरता तो प्रदर्शित करें।

Friday, 16 May 2014

हरियाणा में भी चली मोदी की लहर




हरियाणा में लोकसभा चुनाव के नतीजों से साफ हो गया है कि यहां भी भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की ही लहर चली। प्रदेश की दस लोकसभा सीटों में सात पर हजकां-भाजपा गठबंधन को जीत मिली जो खालिस भाजपा के खाते में गई हैं। रोहतक से दीपेंद्र हुड्डा को विजयी बनाकर लोगों ने मुख्यमंत्री के योगदान का कर्ज चुकाया है।
कभी हरियाणा के भाजपा प्रभारी रहे नरेंद्र मोदी ने अपने अघोषित चुनावी अभियान की शुरुआत ही रेवाड़ी में रैली कर की थी, जिसकी सफलता ने विपक्षी दलों के कान खड़े कर दिए थे। हालांकि उसके बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी रैली की, लेकिन वह मोदी की रैली का प्रभाव कम नहीं कर सकी। हजकां से गठबंधन पर छाए असमंजस की स्थिति ने जरूर भाजपा को नुकसान पहुंचाया और चुनावी रणनीति में वह पिछड़ती दिखी, लेकिन नरेंद्र मोदी की ताबड़तोड़ रैलियों ने सारी कमी की भरपाई कर दी। मोदी ने गोहाना, गुड़गांव, कुरुक्षेत्र और झज्जर में रैलियां की। जाटलैंड सोनीपत में मोदी की गोहाना रैली ने सोनीपत समेत कई लोकसभा क्षेत्रों में पार्टी को चुनावी मुकाबले में आगे कर दिया। हजकां से गठबंधन पर उन्होंने न केवल मजबूती से मुहर लगाई बल्कि अपने पुराने दोस्त इनेलो को आईना दिखा दिया। राजनीतिक योद्धा के रूप में उनका इनेलो पर हमला अचूक साबित हुआ। हालांकि पंजाब में एनडीए के सहयोगी शिरोमणि अकाली दल द्वारा हरियाणा में इनेलो का समर्थन करना जरूर लोगों को नागवार लगा। हजकां प्रमुख ने तो इस पर कड़ी आपत्ति दर्ज कराई तो भाजपा नेता नाराज दिखे। पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और उनके पुत्र सुखबीर की इनेलो के समर्थन में रैलियों ने इनेलो को सिरसा, हिसार और कुरुक्षेत्र लोकसभा सीटों पर काफी मजबूत किया।

भाजपा ने भी की गलतियां

ऐसा नहीं है कि चुनाव में भाजपा ने गलतियां नहीं की। गठबंधन पर लंबे समय तक असमंजस की स्थिति हो या प्रत्याशी चयन में गड़बड़ियां, एक बार तो कार्यकर्ताओं को निराश कर दिया था। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष पर टिकट बेचने का आरोप लगा। रोहतक में पार्टी प्रत्याशी मोदी के खासमखास ओमप्रकाश धनखड़ को टिकट का विरोध कर रहे कार्यकर्ताओं ने नेताओं के साथ जूतमपैजार की और प्रदेश अध्यक्ष रामबिलास शर्मा को छिपकर भागना पड़ा तो सोनीपत में पार्टी के दिगग्ज दिवंगत किशनसिंह सांगवान के पुत्र प्रदीप सांगवान ने विरोध में पार्टी छोड़ दी। पानीपत, कुरुक्षेत्र, भिवानी में खुलकर तो गुड़गांव में अंदरूनी रूप से विरोध हुआ। कुछ दिन पहले कांग्रेस से आए राव इंद्रजीत, धर्मबीर सिंह, रमेश चंद्र कौशिक, राजकुमार सैनी को टिकट देकर पार्टी ने कांग्रेस को बैठे-बिठाए मुद्दा थमा दिया था। मुख्यमंत्री रैलियों में कहते रहे कि भाजपा के पास तो प्रत्याशी ही नहीं हैं, लिहाजा उसने कांग्रेस से उधार लिए लोगों को टिकट दिया।   

कांग्रेस तो लड़ी ही नहीं
दूसरी तरफ कांग्रेस पूरे चुनाव में बिखरी रही। देखा जाए तो इस चुनाव में कांग्र्रेस एक पार्टी के रूप में लड़ी ही नहीं। मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा वनमैन आर्मी रहे। हालत यह रही कि अनुशासन का डंडा चलाए जाने की धमकी के बाद कुमारी सैलजा अपने पसंदीदा प्रत्याशियों के साथ अनमने भाव से खड़ी हुईं। बीरेंद्र सिंह भी कुछ खास लोगों के साथ ही दिखे। हुड्डा विरोधी खेमा एक तरह से चुनाव प्रचार से दूर ही रहा। अगर कहीं कांग्र्रेस ने टक्कर दी तो वह पार्टी नहीं, बल्कि प्रत्याशी की वजह से। स्वयं दीपेंद्र हुड्डा अस्वस्थता के कारण सिर्फ नामांकन के समय आ सके और प्रदेश कांग्र्रेस अध्यक्ष अशोक तंवर अपनी सीट बचाने के लिए जूझते रहे। हुड्डा द्वारा सोनीपत और रोहतक सीट को प्रतिष्ठा से जोडऩे के बावजूद पार्टी में हताशा का माहौल रहा। हिसार में तो चुनाव पूर्व ही पार्टी प्रत्याशी संपत सिंह ने अपनी हार मान ली थी। यही हाल अंबाला का रहा। भिवानी-महेंद्रगढ़ सीट से बंसीलाल की विरासत को आगे बढ़ा रही श्रुति चौधरी तो फरीदाबाद से अवतार भड़ाना ने जरूर मजबूती दिखाई। गुडग़ांव में कैप्टन अजय द्वारा टिकट लेने से इन्कार करने के बाद पार्टी ने हुड्डा समर्थक राव धर्मपाल को मैदान ने उतारा लेकिन वह शुरू से चौथे नंबर पर दिखाई दिए। करनाल लोकसभा सीट पर अरविंद शर्मा की स्थिति अजीबोगरीब रही। सबसे मजबूत प्रत्याशी माने जाने के बावजूद वह शुरू से ही पिछड़ते गए। मुख्यमंत्री के खास रहे पूर्व मंत्री विनोद शर्मा ने भी उनका साथ छोड़ दिया। भाजपा, हजकां, इनेलो यहां तक कि बसपा के दरबार में मत्था टेकने के बावजूद उन्हें कुछ नहीं मिला।

इनेलो को मिला बादल का सहारा

अपने प्रमुख ओमप्रकाश चौटाला और दिग्गज नेता अजय चौटाला के जेल जाने की वजह से असहाय दिख रहे इनेलो के लिए यह अस्तित्व की लड़ाई थी। कार्यकर्ता तो मजबूती से खड़े रहे, लेकिन पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने संकट के समय इनेलो के साथ खड़ा होकर पुरानी मित्रता निभाई। पूर्व उपप्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल और बादल की घनिष्ठता रही और दोनों ने कंधे से कंधा मिलाकर कई राजनीतिक लड़ाइयां लड़ीं।

हजकां की उम्मीदों पर फिरा पानी
हरियाणा जनहित कांग्रेस (बीएल) को भाजपा का साथ जरूर मिला, लेकिन उनका राजनीतिक अस्तित्व इस चुनाव पर टिका हुआ था। स्वयं को राजनेता के रूप में साबित करने के लिए कुलदीप को यह चुनाव जीतना जरूरी थी, लेकिन इनेलो के दांव ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। एक बार करनाल लोकसभा सीट मिलने के बाद उसे वापस करनी पड़ी और सिरसा से कांग्रेस से आए सुशील इंदौरा को मैदान में उतारा, लेकिन वे भी कुछ कर नहीं पाए।


नहीं दिखा आप का जादू
प्रदेश में पहली बार चुनावी मैदान में उतरी आम आदमी पार्टी से उम्मीद की जा रही थी कि दिल्ली के बाद हरियाणा में भी उसका जादू दिखेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। प्रत्याशी चयन का ही जिस तरह विरोध हुआ, उसने समर्थकों को अलग कर दिया। पार्टी के सिद्धांतकार योगेंद्र यादव गुड़गांव से मैदान में उतरे, लेकिन शुरू से ही वे मुकाबले में नहीं रहे। रोहतक से नवीन जयहिंद ने शोर जरूर मचाया लेकिन कर कुछ नहीं पाए। बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने अंबाला में रैली की, लेकिन उसका असर नहीं दिखा।







Wednesday, 1 January 2014

नया संकल्प

नववर्ष पर नया संकल्प वातायान। आप सभी के बीच विचार-विमर्श की गंगा में डुबकी लगाने की विनम्र कोशिश। ईश्वर हमें बुद्धि-विवेक और यश प्रदान करे।